उसकी ज़िंदगी में हर मौसम असमय आया। बचपन जल्दबाज़ी में छोड़ गया और प्रौढ़ावस्था ने जवानी को निगल लिया। सतरंगी सपनों वाला वसन्त उसकी देहरी पर रुका ही नहीं। मासूमियत से वयस्क होने का सफ़र कुछ ऐसा ही तीव्र था जैसे फलों सब्ज़ियों की उँगली के पोर जितनी जीरी को ज़बरन ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन देकर रातोंरात परिपक्व कर दिया गया हो। ऐसे में उम्र का हिसाब नहीं रखता कोई, बस दिखाई देती हैं आँखों के नीचे काले घेरे और झुर्रियाँ जो उपजाऊ चमड़ी देखकर हर तरफ़ उग आईं थीं। कितने सावन बीते पता नहीं, वो अपने कुकून में बन्द रही। उसे अपना घेरा सुरक्षित लगता, कौन जाने बाहर कौन सा ख़तरा सामने आ खड़ा हो, रिस्क कौन ले। धीरे धीरे वो एगोराफोबिया की गिरफ़्त में कसती गयी। वह मानसिक स्थिति जिसमें इंसान, घर से निकलने, किसी ने मिलने जुलने से इस हद तक डरने लगता है कि पैनिक अटैक आने लगते हैं। ऐसे में एक दिन अचानक उसकी मेज़ पर रखा पुराना और अधिकतर ख़ामोश ही रहने वाला गोल डायल वाला फ़ोन बजा। हैरानी से फैली उत्सुक आँखों और हमेशा चुप से रहने वाले माहौल को चीरती घन्टी की आवाज़ से धड़कता कलेजा लिए उसने रिसीवर उठाया। दूसरी तरफ़ से खनखनाती आवाज़ आयी
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