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Showing posts from March, 2021

मेम्स कल्चर

मुझे अपने मित्रों से आज मुझे बेहद नाराजगी है क्योंकि ये आलोचना और विरोध में अंतर नहीं समझ पा रहे।आलोचना लोकतंत्र के मूल में है।कुछ लोग विरोध व समर्थन की चरम सीमा पर पहुँच गए हैं।सरकारें को प्रतिपुष्टि देना जनता का अधिकार व कर्तव्य है। सबसे बुरी बात ये है कि प्रत्येक राजनीतिक दलों की आई टी सेल तथा विभिन्न राजनेताओं,अभिनेताओं व अन्य सेलिब्रिटीज फैन क्लब अपने समर्थकों तथा फालोवरों को बरगलाने का कार्य कर रहे।बिना तथ्यों की जांच-पड़ताल किये पढ़े-लिखे लोग भी इन फैन क्लबों तथा आई टी सेल द्वारा प्रायोजित लाल-हरे-पीले इत्यादि रंगो द्वारा सजाये गये न्यूज़ तथा न्यूज़ मीम्स शेयर कर रहे हैं। कुछ लोग राजनीतिक वन लाइनर लिखकर #हैशटैग ट्रेंड करा रहे हैं। एक प्रसिद्ध वाक्यांश चल पड़ा है की "तब कहां थे जब..."  यह अपने आप में ही अर्ध सत्य है।क्योंकि  देशकाल परिस्थितियों के साथ तस्वीरें अपना मूल संदर्भ खो भी देती हैं।हर व्यक्ति हरसमय हर जगह नहीं हो सकता।ये भी सम्भव है कि फलां घटना घटित हो रही हो तो वह नहीं उपस्थित रहा हो अथवा कल अमुक घटना के समय रहा हो आज नहीं हो। आज की कोरोना संक्रमण के समय भी ल

भगत सिंह बलिदान दिवस

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#२३मार्च संसद भवन, नई दिल्ली.. लोकसभा का हॉल।  आज का पार्लियामेंट हाउस तब सेंट्रल असेम्बली कहा जाता था। 8 अप्रेल 1929 को सभा की कार्यवाही शुरू हुई और ऊपर से एक बम आकर गिरा। जोर का धमाका, सब धुआं धुंआ.. अफरातफरी मच गई। सदस्य इधर उधर भागे। ऊपर, दर्शक बालकनी से बम फेंका गया था। अब वहां से पर्चे गिरने लगे। फेंकने वाले दो युवक थे। मजे से खड़े थे, नारे लगा रहे थे। उन्होंने भागने की कोशिश नही की, उनके बम से कोई मरा भी नही था।कोई नुकसान नही हुआ, बस एक खम्भे का ग्रेनाइट चटक गया था।  कुछ सुरक्षा कर्मियों ने नारेबाजों को पकड़ लिया। एक युवक के पास से पिस्टल बरामद हुई। उसका नाम- "भगत सिंह"।  बयान-"बहरों को सुनाने के लिए धमाका किया है". -- मुकदमा शुरू हुआ। लीगली, बम से कोई मरा नही था, मगर बम फटा तो था, सो एक्सप्लोजीव एक्ट लगा। भागने की कोशिश नही की, पर्चे फेंके थे जिसमें सरकार की आलोचना थी, सो राजद्रोह लगा। इन धाराओं में वे शायद दस पन्द्रह साल जेल काटकर छूट जाते, जो बटुकेश्वर दत्त के साथ हुआ भी। लेकिन भगत का मामला फंस गया। पुलिस को खुफिया खबर मिली कि उसके पास जो पिस्टल

अपने हिस्से की छाँव

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#जब_ये_सूरज_से_मांगेगें_अपने_हिस्से_की_छाँव.... उन्होंने कहा बाहर खतरा है कोई बाहर ना निकले वे बाहर निकल पड़े वे जानते थे भूख से बड़ा कोई खतरा नहीं.. उन्होंने कहा घरों के अंदर रहें घर के अंदर कोई खतरा नहीं  वे घरों की ओर चल पड़े... अब पुलिस घर नहीं जाने दे रही... उन्होंने कहा संक्रमण के बाद आदमी  पंद्रह दिनों में मर जाता है और मैंने पूछा,भूख से? वो रामायण देखने लगे.. अतुल पाण्डेय

मैकाले का भाषण

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#episode9 अब मैं लॉर्ड मेकाले का वह मैकाले का बदनाम भाषण  लिखने जा रहा हूँ, जो विकृत रूप में सोशल मीडिया में घूमता रहा है। हम ब्रिटिश इतिहास को तोड़-मरोड़ कर यह कहने के योग्य नहीं रहते कि उन्होंने तोड़ा-मरोड़ा। इसलिए, इसका मूल पाठ करना चाहिए। मैं यहाँ मुख्य अंशों का सरल अनुवाद लिख रहा हूँ। उसके बाद इसमें आपत्तियों पर चर्चा होगी।  यह ‘मिनट्स ऑफ एजुकेशन’ है जो कलकत्ता में शिक्षाविद थॉमस मेकाले ने प्रस्तुत किया।  “मुझे बताया गया कि यहाँ की शिक्षा 1813 के ब्रिटिश अधिनियम के तहत निर्धारित की गयी है, जिसमें कोई भी बदलाव संवैधानिक माध्यम से ही संभव है।  फ़िलहाल एक ख़ास रकम साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए मुहैया की गयी है। यहाँ साहित्य का अर्थ वे तमाम संस्कृत और अरबी ग्रंथ हैं। मैं पूछता हूँ, क्या यहाँ के लोगों को मिल्टन की कविताएँ और न्यूटन की भौतिकी नहीं पढ़नी चाहिए? क्या वे कुश-घास से देवताओं की पूजा करना ही सीखते रहेंगे? अगर हम मिस्र का उदाहरण लें, तो वहाँ भी कभी समृद्ध सभ्यता थी। अब वे कहाँ हैं? क्या उन्हें भी आदि काल के चित्रलेख (हीरोग्लिफिक्स) ही पढ़ाए जाएँ?  मुझ

रंगरेज

सुना है बड़े रंगरेज़ हो तुम कुछ मुट्ठी भर उदासी तुम्हारी  चौकठ पर रख आये हैं भर दो ना रंग इनमें। चढ़ा दो ना रंग  अपने होठों की सुर्खियों का सफ़ेद !झक सफ़ेद पड़े चेहरे पर। आओ! आओ ना  चुपके चुपके दबे पाँव भर लो अंक में मेरे शब्दों को मै शब्दों में ही जीता हूँ तुम्हें।  छाता जा रहा है ना! उन काली स्याह आंखो का रंग छीने हुए सतरंगी जीवन में। मैं मिलूँगा वही  जहाँ मैं नहीं तुम नहीं रंग नहीं प्यार नहीं सिर्फ हम होंगे। -------------------#यायावर

ढलती उम्र

उम्र की ढलती दोपहर में उसके अंदर से फूटा प्रेम-अंकुर, जैसे गूलर के फल में पनप रहा हो गूलर का फूल। जैसै अषाढ़ की कच्ची बरसात में सहज ही फूट उठता है  मिट्टी-धूल के नीचे दबा पड़ा स्नेह-बीज। अंकुर जड़ें पहुँचीं हृदय की अतलतम कंदराओं में, जहाँ बिखरी पड़ी हैं वय:संधि काल की उमंगो के टुकड़े । जड़ों ने सोखा वर्जनाओं के पहाड़ तले दबे अश्रु-स्वेद के अधकचरे जीवाश्म को, अनायास ही साँसों में भरा उलझती लटों में लिपटी बसंती हवाओ को, पहन लिया नव-पल्लव  उम्र की गाँठों पर सहज ही, और उछाल दिया हथेलियों को आसमान के जानिब मुठ्ठी में भर लिया बचा-खुचा आसमान, उड़ते पंछीयों के झुण्ड में से थाम लिया मचलकर किसी भटकते पंछी का हाथ, लगाये अनगिनत गोते साथ-साथ सूरज की आड़ में...✍अतुल पाण्डेय

गाय और स्त्री

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मेरे बाबा ने गाय पाला ऐसा मेरी दादी बताती है जिसके लिए तरह तरह के चारे बोए नर्म राख से घारी बनायीं दादी भी दोनों समय हाथ फेरती पीठ पर आपने हाथों से खिलाते चारा और घास बाबा कहते लक्ष्मी है लक्ष्मी! गाय समय से  उकड़ा दी जाती नाद से खूंटे पर खूंटे से बंधी गाय खड़ी रहती बिना हिले डुले बाबा के इशारे से प्रतीक्षा में स्त्रियाँ गाय थीं जो समय से खूंटे से बांध दी गईं।