हम प्रच्छन्न बिखरे पड़े है एक दूसरे के सापेक्ष ब्रह्माण्ड की अलग-अलग आयामों में चक्कर लगा रहे अपने अस्तित्व के जैसे दो श्याम विवर लगाते है एक दूसरे का सहज-सरल पर नहीं पहुँचे कहीं... हमारे गति ने उत्पन्न किये हैं अनेक आयामो के जीवन वृत्त तुम्हारी ऊर्जा के अध्यारोपण से मैंने तय किये हजारों वर्षों की दूरी पल में ही ... आलिंगनबद्ध हृदय-खण्डों ने उत्पन्न की है दिक्-काल में वक्रता जिस ओर झुकते जा रहे सभी पार्थिव-पिण्ड.. हृदय के अभ्यांतर के सन्नाटे में घुल गया है तुम्हारा अनहद स्वर, वक्त भी थम सा गया है हमारे महामिलन की इंतिजार में...
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Showing posts from 2021
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(१)उसके पास समय नहीं था मेरे पास धैर्य, उसके पास शब्द नहीं थे मेरे पास शब्दिता, इस तरह हम एक दूसरे के पूरक हुए। (२)मेरे शब्दों की शिरोरेखा से लटके हुए अक्षर अक्षरों में छिपीं हुई ध्वनियां ध्वनियों में गूँजते भाव उसके अस्तित्व का प्रमाण हैं अस्फुट अधरों पर मेरे नाम का लिपटना इस ब्रह्मांड की सबसे प्रेमिल क्रिया है।
मिल्खा सिंह और नेहरू
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....जब प्रधानमंत्री नेहरू ने मिल्खा सिंह के नाम पर पूरे देश एक दिन की छुट्टी दी। वह स्थान था रोम और वर्ष 1960 था।मौका था ओलम्पिक गेम्स का। हर चार साल में होने वाले ओलम्पिक गेम्स की लोकप्रियता उस दौर में भी वही थी और आज भी उसका क्रेज़ बरकरार है हाँ ये है कि पहले खिलाड़ी देश के लिए खेलते थे और आज खेल पैसों के लिए खेला जाता है। फ्लाइंग सिख के नाम से प्रसिद्ध मिल्खा सिंह, ऐसे ही एक खिलाड़ी हैं जिन्होंने रोम ओलम्पिक्स में स्वतंत्र भारत का प्रतिनिधित्व किया था।धावक मिल्खा सिंह ने ना सिर्फ खेल जगत में अपना एक विशिष्ट स्थान हासिल किया था बल्कि अपनी ईमानदारी का भी उन्होंने ऐसा प्रदर्शन दिया जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी प्रभावित हुए बिना रह नहीं सके। जब मिल्खा सिंह रोम में हो रहे समर ओलंपिक की 400 मीटर रेस के लिए मैदान में उतरे तो पूरे भारत की दृष्टि उन पर थी।1960 के रोम ओलंपिक में विश्व रिकॉर्ड तोड़ने के बावजूद मिल्खा सिंह भारत के लिए पदक नहीं जीत पाए और उन्हें चौथे स्थान पर संतोष करना पड़ा। कार्डिफ राष्ट्रमंडल खेलों में उन्होंने तत्कालीन विश्व रिकॉर्ड होल्डर मैल्कम
पिता
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(१) पिता गये थे सफेद गाड़ी में बैठ कर पिता आएं हैं सफ़ेद पैकेट में लेट कर बच्चों को गाड़ी की आवाज कभी इतनी भयानक नहीं लगी। थी।। (२) पिता! तुंम्हारी स्मृतियाँ उस अबोध प्यासे बच्चे मानिंद हैं जो विह्वल हो फैला लेता है बाहें जल पात्र देख कर। (३) माँ! उसकी तेज साँसे कातर दृष्टि बच्चों की आँखों में प्रतीक्षा उखड़ती सांस लिए अस्पताल गयी माँ दुनिया की सबसे बेसब्र प्राणी होती है। (४) मृत्यु के भटके हुए उदास कदम श्मशानों से भी लौट आते हैं, उफ़!मरने की इतनी जल्दी कभी किसी को नही थी। (५) पिता! तुम्हारा पहला निवाल हमारे हलक में उतरा, तुम्हारे प्यास की पहली घूँट हमने सोख लिया, तुंम्हारी हर पहली वस्तु हमारी हुई परन्तु तुम्हारे दुःख का अंतिम टुकड़ा भी हमें न मिला दुःख बाटने में पिता जैसा स्वार्थी कोई न हुआ।
पीपल और ऑक्सीजन
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हिन्दू आस्था में पीपल के पेड़ को पूजनीय माने जाने पर कुछ लोग तर्क देते हैं कि पीपल ही एकमात्र ऐसा पेड़ है जो रात में भी ऑक्सीजन देता है। क्या वास्तव में ऐसा है? सबसे पहले तो पेड़-पौधों द्वारा ऑक्सीजन के उत्सर्जन की प्रक्रिया को समझना होगा। जैसा की आप जानते हैं कि पेड़ पौधे फोटोसिंथेसिस क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाते हैं जिसमें वे सूर्य की रोशनी में co2 का प्रयोग कर भोजन तैयार करते हैं। इस क्रिया में ऑक्सिजन मुक्त होती है और उर्जा ग्लूकोस के रूप में संचित हो जाती है। इसके साथ ही जब पेड़-पौधे इस संचित उर्जा का उपयोग अपनी जैविक क्रियाओं के लिए करते हैं तो इसमें CO2 मुक्त होती है। इस क्रिया को respiration कहा जाता है। अतः पौधे अपनी जैविक क्रियाओं के द्वारा ऑक्सीजन और CO2 दोनों मुक्त करते हैं। अधिकांश पेड़-पौधों में हर समय गैसों का आदान प्रदान चलता रहता है। दिन में चूँकि फोटोसिन्थेसिस क्रिया होती है इसलिए दिन के समय ऑक्सीजन का उत्सर्जन प्रमुखता से होता है। रात्रि में फोटोसिन्थेसिस क्रिया न होने के कारण CO2 का उत्सर्जन अधिक होता है। ये फोटोसिन्थेसिस की आम क्रिया है जो अधिकतर पेड़-पौधों में सम्पन्न
पृथ्वी दिवस:एक आलेख
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#पृथ्वी_दिवस_पर_विशेष_आलेख आज मैं दृश्यमान ब्रह्मांड के सुपरक्लस्टर के, वीगो सुपर क्लस्टर के, लोकल आकाशगंगा समूह में स्थित मंदाकिनी आकाशगंगा की ओरियन भुजा में स्थित सौर मंडल के, पृथ्वी नामक ग्रह पर स्थित एशिया महाद्वीप के, भारतीय उपमहाद्वीप के मध्य में भारतवर्ष नामक देश में उपस्थित, उत्तर प्रदेश नामक राज्य के अंत में एक देवरिया जनपद के पुच्छ पर स्थित सलेमपुर तहसील के केंद्र में अवस्थित #श्री_रैनाथ_ब्रम्हदेव_स्नातकोत्तर_महाविद्यालय_सलेमपुर की #शिक्षा_संकाय में कुर्सी पर बैठा हुआ,यह लिख लिख रहा हूं। हमारी आकाशगंगा का 100000 प्रकाश वर्ष वर्ष व्यास तथा 3000 प्रकाश वर्ष मोटी सर्पिलाकार संरचना है। हमारा सूर्य इसके केंद्र से 26000 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है तथा 250 किलोमीटर प्रति सेकेंड की दर से आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा कर रहा है ।जबकि एक प्रकाश वर्ष में 95.5 खरब किलोमीटर के बराबर होता है। कितना विशालकाय है हमारा ब्रह्माण्ड!इसी अकाशगंगा की ओरियन भुजा में स्थित सौर मण्डल के एक ग्रह पृथ्वी पर जीवन उत्पन्न हुआ था।वह जीवन आज से करीब 400 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था। विभिन्न भौ
मानव 7
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#letter7 #schoolhistory हमने अब तक जाना कि कई मानव प्रजातियों में अंतत: होमो सैपिएन्स ही बच पाए। हमने यह भी देखा कि मानव अफ़्रीका से निकल कर पूरी दुनिया में फैल गए। मुमकिन है कि एक ही परिवार का एक व्यक्ति अमरीका चला गया, और उसका एक दूर का भाई ऑस्ट्रेलिया। यह सब उन्होंने जंगलों, नदियों, हिम-सेतु (लैंड ब्रिज़) को लाँघते हुए किया। वे अपने लिए एक बेहतर जगह तलाश रहे थे, जहाँ आराम से भोजन मिले, शिकार मिले। जहाँ ख़तरनाक जानवर कम हों, और जहाँ मौसम अच्छा हो। अफ़्रीका रहने के लिए बुरी जगह नहीं थी, मगर वहाँ का मौसम बुरा था। कभी भीषण गर्मी और सूखा, तो कभी पूरी नील नदी में बाढ़। उतने ही भयावह जंगली जानवर। इस कारण आज से तीस हज़ार साल पहले सबसे अधिक जनसंख्या आज के एशिया क्षेत्रों आकर बस गयी, जहाँ की नदियों के दोनों तरफ़ फलते-फूलते जंगल होते। यही अनुपात आज तक कायम है और आधी से अधिक आबादी एशिया में ही है। उस समय उनके पास न एयरकंडीशर था, न अच्छे कपड़े। न वह पक्के घर बनाते, न उनके पास वाहन थे। यह ज़रूर मालूम पड़ता है कि जंगली कुत्ते उनके शिकार में मदद करते, मगर उनमें स्वयं मौसम और ख़तरा भाँपने की क्षम
मानव 8
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#letter8 #schoolhistory पूरी दुनिया में दो तरह के लोग रहते हैं। एक, जो हज़ारों वर्षों से चल रही परंपरा से जीना चाहते हैं, जिन्हें परंपरावादी (कंज़रवेटिव) कहते हैं। दूसरे, जो परंपराओं को तोड़ कर नयी गढ़ना चाहते हैं, जिन्हें प्रगतिवादी (प्रोग्रेसिव) कहते हैं। दोनों मिल कर कुछ अच्छा कर जाते हैं। मनुष्य मुख्यत: मांस पका कर या मछली मार कर खाते थे। बारह हज़ार वर्ष पूर्व कुछ आदमी फरात नदी के किनारे से गुजर रहे थे। वहाँ उन्होंने देखा कि लंबे घास हैं, जिनमें कुछ बालियाँ निकली है। वे पहले फल-सब्जी खाते रहे थे, मगर यूँ घास नहीं चबाते थे। अगर आज के भोजन का मेन्यू देखा जाए, तो उसमें से अधिकतर चीजें गायब होंगी। न चावल, न ब्रेड, न दाल, न मक्खन। फिर भी उनका पोषण संतुलित था। चलते रहने की वजह से उन्हें कभी एक फल मिल जाता, तो कभी एक जंगली हरी सब्जी। कभी कंद उखाड़ लिया और कभी ताज़ा मांस खाया। हर दिन कुछ नया खाना, हर मौसम में अलग खाना। यह नहीं कि रोज चावल-दाल ही खा रहे हैं। इसमें सरप्राइज़ रहता कि वह आखिर क्या खायेंगे, और सबसे अच्छी बात कि भोजन वह मेहनत से हासिल करते। जब भूख लगती, तभी खाते। जब उन्होंने न
मानव 6
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#letter6 #schoolhistory “हम यह कैसे कह सकते हैं कि मानव अफ़्रीका से ही आए?” “मानव अफ़्रीका से नहीं आए। होमो सैपिएन्स अफ़्रीका से आए, यह माना जाता है। “यानी मानव प्रजातियाँ अन्य स्थानों पर थी?” “इसके एक नहीं कई सबूत हैं। भारत में नर्मदा स्त्री, रामापिथिकस, चीन में दाली मैन, इंडोनेशिया में जावा मैन आदि” “मगर सैपिएन्स अफ़्रीका से ही आए, यह कैसे कहा जा सकता है? हो सकता है भारत में भी रहे हों?” “जब तक अफ़्रीका से पुराने सैपिएन्स मिल नहीं जाते, यह कहा नहीं जा सकता। अफ़्रीका में तीन लाख वर्ष पुराने सैपिएन्स मिले, लेकिन अन्य स्थानों पर तीस से साठ हज़ार वर्ष पुराने ही मिल सके। ऐसा नहीं कि खोजा नहीं गया। भारत ने तो डायनॉसोर के अंडे तक खोज लिए, कई मानव अस्थियाँ मिली। यूरोप में नियंडरथल खूब मिले। मगर सैपिएन्स प्रजाति में अफ़्रीका अभी लाखों वर्ष की लीड लेकर चल रहा है।” “इस बात की क्या गारंटी है कि अफ़्रीका से ही मानव भारत या अन्य स्थानों पर गए?” “आज से तीन-चार दशक पहले यह सब पक्का कहना कठिन था। लोग उनके औजारों से, भाषा से, रस्मों से, रंग से, बनावट से, धर्मग्रंथों की बातों से, आज के ब्ल
सतुआन
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#लोकपर्व_सतुआन_और_अंबेडकर_जयंती आज १४ अप्रैल की तिथि अति महत्वपूर्ण तिथि है।एक तो आज अम्बेडकर जी की जयंती है,दूसरे की भोजपुरिया समाज का प्रमुख लोकपर्व कर्क संक्रांति अर्थात् सतुआन है।यह हम गवँई खेतिहर लोगों का सादा और प्रकृति के अनुकूल त्यौहार है।रबी की फसल पक के तैयार है।चहूँ ओर खेतों में धूसर सफेदी फैली हुई है।गेहूँ की प्रौढ़ बालियाँ अपने धवल शीर्ष झुकाई हुई हैं।बसंत और ग्रीष्म ऋतु का संधिकाल है।रबी की अगेती फसलें जैसे चना,मटर,जौ इत्यादि किसानों ने पहले ही काट-बांध-ढो-पीट-ओसा- फटकर सुरक्षित कर लिया है। कहीं ट्रैक्टर और कम्बाईन हार्वेस्टर की तो कहीं खेतों में हसुंआ से गेहूँ के डण्ठल काटने की चिर-परिचित तीक्ष्ण पर आनंददायक ध्वनि सुनाई पड़ रही है। सूरज की तल्खी के कारण पछुआ हवा की शीतलता बस अब जाने को है।पछुआ हवाओं और बालियों के मिलन से सुमधुर खन-खन की ध्वनि किसानों के हृदय को आनंदित कर रही है।आम की डालियों पर बैठे हुए पक्षी-युगल आम के नव-विकसित फलों को निहार कर विभोर हुए जा रहे।महुआ के मादक पुष्प की सुगंध से बौरायी कोयल कूके जा रही।लाक-डाउन के कारण नटखट बच्चे घरों में से ही
मानव 2
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#Lette r2 #schoolhistory हम हर दिन घर नहीं बदलते। हर दिन तो क्या हर महीने भी नहीं बदलते। लेकिन, हमारे पूर्वज अपनी जगह बदलते रहते थे। बेहतर फलों के लिए। बेहतर शिकार के लिए। बेहतर जगह छुपने के लिए। जहाँ घने जंगल हों, लंबी घास हो, आस-पास कोई नदी हो। वे ऐसे स्थान तलाशते-तलाशते सैकड़ों किलोमीटर चलते जाते। यह उनकी मर्ज़ी कि नयी जगह पर टिक जाएँ, या वापस लौट जाएँ। इसे ख़ानाबदोश (नोमैडिक) जीवन कहते हैं। जब अमला का परिवार अफ़्रीका से चल कर आज के अरब या भारत तक आया होगा, तो उन्हें कितना वक्त लगा होगा? अगर वे रोज बीस-पच्चीस किलोमीटर चलते हों तो एक साल से कुछ अधिक वक्त। अगर वह महीना-दो महीना रुक-रुक कर चलते हों तो पाँच-दस साल भी लग गए होंगे। उनको कोई जल्दी तो थी नहीं। उन्हें तो खुद नहीं पता था कि वे कहाँ जा रहे हैं। शायद अमला का परिवार कभी पहुँच ही न पाया हो। उनके सौ साल बाद कोई दूसरा परिवार आया हो। जब वे भारत आए तो क्या उन्हें किसी दूसरे आदमी का परिवार मिला? ऐसा परिवार जो उनसे पहले अफ़्रीका से भारत आ चुका हो? या एक ‘मेड इन इंडिया’ आदमी, जो भारत में ही इवॉल्व हुआ हो? एक पुरातत्वविद (आर
मानव 3
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#Letter3 #schoolhistory कई बड़े परिवार के लोग एक बड़े घर में रहते हैं। तीन पुश्तें एक साथ रहती हैं। उनके पड़ोस में उनके दादा के भाइयों का परिवार रहता है। इस तरह पूरे गाँव में एक बड़ा परिवार रहता है, जिनके पूर्वज कभी एक ही रहे होंगे। कई स्थानों पर पूर्वजों का पता ख़ास उपनाम से लगता है। जैसे दुनिया भर के माउंटबेटन उपनाम के व्यक्ति आपस में जुड़े हैं। अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडेन और नागपुर के एंग्लो-इंडियन बाइडेन परिवार के पूर्वज एक हैं। भारत में माना जाता है कि एक गोत्र और मूल के लोगों के पूर्वज एक हैं। लेकिन, इस बात को पक्का करना हो, तो कौन सी तरकीब लगानी होगी? हम सबका एक डीएनए है, जो हमारा हस्ताक्षर है। वह यूनीक है, किसी से नहीं मिलता। सगे भाई-बहन के डीएनए में कम से कम एक लाख अंतर होते हैं। एक परिवार के दो व्यक्तियों में दो-तीन लाख अंतर मिल सकते हैं। हमारे माता-पिता से भी हमारा डीएनए अलग होता है। यूँ समझ लें कि माता और पिता ने ताश के पत्तों की दो गड्डियाँ सामने रखी, और मिला कर शफ़ल कर दी। अब जो पुत्र रूप में ताश की गड्डी मिली, उसमें पत्ते तो उनके ही हैं, मगर उन्हें भी नहीं मालूम कि
मानव 5
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#letter5 #schoolhistory “हमें कैसे पता लगता है कि पचास हज़ार या एक लाख वर्ष पहले क्या हुआ था? हम कैसे कह सकते हैं कि वह कंकाल इतना पुराना है?” “आपने रेत-घड़ी देखी होगी। आवर-ग्लास। उसमें रेत जब पूरी नीचे गिर जाती है, तो हम कहते हैं कि आधा घंटा हो गया, या एक घंटा हो गया। इसी तरह कार्बन लगभग छह हज़ार वर्ष में टूट कर आधा हो जाता है, बारह हज़ार वर्ष में चौथाई, अठारह हज़ार वर्ष में आठवाँ हिस्सा। उसे माप कर हमें पता लग जाता है। अगर हमें यूरेनियम उन पत्थरों में मिल गए, तो वह साढ़े चार अरब वर्ष या उससे पुरानी तारीख़ भी बता देगा!” “लेकिन यह कैसे पता लगता है कि वह सैपिएन्स हैं या नियंडरथल?” “यह उनके कंकालों के आकार-प्रकार से पता लगता है। नियंडरथल कद में छोटे, कुछ मोटे-तगड़े और चौड़ी नाक वाले होते थे। उनकी खोपड़ी भी बड़ी होती थी। मुमकिन है कि वह तुमसे फुटबॉल में हार जाते, मगर कुश्ती में तुम्हें धोबिया-पाट दे देते! अब उनके डीएनए भी मिल गए हैं, तो यह अधिक आसान हो गया है।” “नियंडरथल का डीएनए?” “हाँ। उनके कंकाल से उनका डीएनए भी निकल गया, और उसकी पूरी जीनोम यानी उसका पूरा चिट्ठा भी। अब वह म
मानव 4
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# Letter4 #schoolhistory अफ़्रीका से चलते-चलते मनुष्य पूरी दुनिया में पसर चुके थे। यह जो भी क़ाफ़िला था, वह संभवत: एक ही आदम गाँव या एक ही परिवार का था। एक ही वंश के लोग। बात अज़ीब है, मगर डीएनए तो यही कहता है। ये सभी होमो सैपिएन्स थे, जिनकी मुलाकात दुनिया के अन्य मानव प्रजातियों से हो रही थी। जब ये भारत आए तो घूमते-फिरते वह भोपाल के निकट भीमबेतका (भीम बैठक) की गुफ़ाओं में बस गये। ऐसी और भी गुफ़ाएँ थी, मगर यह एक बड़ा केंद्र था। यह उनका हेडक्वार्टर था। यहीं से योजना बना कर वह पूरे दक्षिण एशिया, चीन, अंडमान, फ़िलीपींस, इंडोनेशिया, लंका और यहाँ तक कि ऑस्ट्रेलिया तक गए। अब सवाल यह है कि क्या आज आप भारत से टहलते हुए ऑस्ट्रेलिया जा सकते हैं? फिर वे कैसे चले गए, और इसके प्रमाण क्या हैं? एक प्रमाण तो डीएनए ही है। दूसरी बात कि उस समय यानी आज से पचास-साठ हज़ार वर्ष पहले समुद्र उथला था, और कुछ उछल-कूद करते, कुछ छोटी डोंगियाँ बना कर पहुँचा जा सकता था। यह माना जाता है कि ऑस्ट्रेलिया उससे पहले एक वीरान द्वीप था, जहाँ आदमी तो क्या बंदर, गुरिल्ला आदि भी नहीं थे। वहाँ के पहले
मानव 5
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#letter5 #schoolhistory “हमें कैसे पता लगता है कि पचास हज़ार या एक लाख वर्ष पहले क्या हुआ था? हम कैसे कह सकते हैं कि वह कंकाल इतना पुराना है?” “आपने रेत-घड़ी देखी होगी। आवर-ग्लास। उसमें रेत जब पूरी नीचे गिर जाती है, तो हम कहते हैं कि आधा घंटा हो गया, या एक घंटा हो गया। इसी तरह कार्बन लगभग छह हज़ार वर्ष में टूट कर आधा हो जाता है, बारह हज़ार वर्ष में चौथाई, अठारह हज़ार वर्ष में आठवाँ हिस्सा। उसे माप कर हमें पता लग जाता है। अगर हमें यूरेनियम उन पत्थरों में मिल गए, तो वह साढ़े चार अरब वर्ष या उससे पुरानी तारीख़ भी बता देगा!” “लेकिन यह कैसे पता लगता है कि वह सैपिएन्स हैं या नियंडरथल?” “यह उनके कंकालों के आकार-प्रकार से पता लगता है। नियंडरथल कद में छोटे, कुछ मोटे-तगड़े और चौड़ी नाक वाले होते थे। उनकी खोपड़ी भी बड़ी होती थी। मुमकिन है कि वह तुमसे फुटबॉल में हार जाते, मगर कुश्ती में तुम्हें धोबिया-पाट दे देते! अब उनके डीएनए भी मिल गए हैं, तो यह अधिक आसान हो गया है।” “नियंडरथल का डीएनए?” “हाँ। उनके कंकाल से उनका डीएनए भी निकल गया, और उसकी पूरी जीनोम यानी उसका पूरा चिट्ठा भी। अब वह मिलान करने से
गांधी या सावरकर
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जो यूं होता तो क्या होता ??? बंटवारा, हिंदुस्तान का। रेडक्लिफ लाइन जमीन पर ही नही, आम हिंदुस्तानी के दिल पर चला हुआ वो चाकू है, जिसका घाव, मौजूदा हिन्दू-मुस्लिम डिबेट के बीच, रह-रह कर मवाद फेंक रहा है। दो बड़ी ख्वाहिशें हमारी है, इतिहास से। पहली कि काश, बंटवारा न हुआ होता। और दूसरी- काश, कांग्रेस न होती, गांधी नेहरु भी न होते। तो धर्मनिरपेक्षता का नाटक न होता, 1947 में हिन्दू राष्ट्र घोषित हो गया होता। आइये दोनों ख्वाहिशों को उस दौर परिस्थितियों को सुपर-इंपोज करते हैं। -- 1937 के भारत का नक्शा देखिये। ये बर्मा से बलूचिस्तान तक फैला है। इसमे एक केंद्रीय सरकार है, वाइसराय इसके राष्ट्रपति की तरह हैं। इसके अंडर दो तरह के राज्य है। 1- एक तो वैसा ही, जो आज है। याने केंद्र के नीचे एक गवर्नर और विधानसभा, यूनाइटेड प्रोविन्स ( लगभग उत्तर प्रदेश) सेंट्रल प्रोविन्स ( लगभग मध्यप्रदेश) बंगाल ( बिहार,उड़ीसा, पच्छिम बंगाल और बंगलादेश) मद्रास वगेरह ये ब्रिटिश डायरेक्टली शाशन करते थे। ये देश का 52-55% हिस्सा था। इसे एक गिनिए। 2- बाकी देशी रियासतें। जो सेना, संचार, विदेश छोड़, शेष मामलों
कोरोना 2 और सरकार की जबाबदेही
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कोरोना वायरस की सेकंड स्ट्रेन शुरू हो चुकी है।कुछ राज्यों में लॉकडाउन,आंशिक लॉक डाउन लग रहा है। देश की स्थिति बहुत गंभीर है।अभी तक कोरोना संक्रमण से मरने वालों की संख्या 1500000 से भी अधिक हो गयी है।हॉस्पिटलों में एक बार फिर बेड की कमी,स्टाफ की अनउपलब्धता और संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं।,कहीं रात का कर्फ्यू, कहीं आने-जाने पर पाबंदी लगनी शुरू हो गई है। राज्य सरकारें अपने अपने स्तर से लॉकडाउन और संभव विकल्प पर काम करना शुरू कर रही हैं।परंतु सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इस महामारी की दौर में हमारे भारत चार राज्यों में चुनाव आयोजित किए गए। हमारे उत्तर प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत पंचायत चुनाव कराए जा रहे हैं। नेताओं की रैलियां हो रही है।रोड शो हो रहे हैं काफिले निकल रहे हैं। समूह में प्रचार-प्रसार हो रहा है। दुर्भाग्य से हमारे देश के प्रधानमंत्री,गृहमंत्री,विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री और समकालीन सत्तानशीं,जिनके कंधों पर इस देश का भविष्य निर्माण निर्भर है वह भी चुनाव प्रचार में लगे हुए हैं।।प्रत्येक राजनितिक प्रतिष्ठान चुनाव में डूब हुआ है।प्रधानमंत्
गुलबिया के चिठ्ठी
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गुलबिया क चिठ्ठी - कैलाश गौतम कहीं निरदयी कि बेदरदी कहीं हम भुलक्कड़ कहीं कि अलहदी कहीं हम कि झुट्ठा कि लंपट कि बुद्धू अनाड़ी कि अकड़ू कि अँइठू कि पक्का खेलाड़ी गयल हउवा जब से न मुँह फिर देखउला न देहला सनेसा न चिट्ठी पठउला न कहले कहाला न सहले सहाला हमैं दाल में कुछ हौ काला बुझाला झरत हउवै पतई बहत हौ झकोरा खलत हउवै ऐना खलत हौ सिन्होरा अ बान्है के हौ बार मीसल परल हौ बिहाने से तोहरे पर गुस्सा बरल हौ बजत हौ झमाझम रहरिया क छेमी सबै भइया बाबू सिवाने क प्रेमी चढ़ल हउवै फागुन उपद्दर मचल हौ सबै रंग में डूबल न केहू बचल हौ हौ होठे पर फागुन कपारे पर फागुन बजावत हौ चिमटा दुआरे पर फागुन लवर दिन में लहकै परासे के ओरी कियरिया लगै अइसे रंग क कटोरी फरल हउवै सहिजन दुआरे क जब से उहै हउवै ठीहा दुलारे क तब से बड़े मन से फगुआ जियत हउवैं बुढ़ऊ अ भगतिन के मंठा पियत हउवैं बुढ़ऊ जहाँ देखैं बुढ़ऊ टकाटक निहारैं एको दाँत नाहीं हौ मसगुर चियारैं भगत कंठी वाले चुहल पर उतारू उहैं ढेर बइठैं जहाँ मेहरारू का का बताईं आ कइसे बताईं बिपत पर बिपत हौ कहाँ तक गिनाईं एहर कवनो करवट न आवै ओंघाई अ देखीं चनरमा त फूट
मेम्स कल्चर
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मुझे अपने मित्रों से आज मुझे बेहद नाराजगी है क्योंकि ये आलोचना और विरोध में अंतर नहीं समझ पा रहे।आलोचना लोकतंत्र के मूल में है।कुछ लोग विरोध व समर्थन की चरम सीमा पर पहुँच गए हैं।सरकारें को प्रतिपुष्टि देना जनता का अधिकार व कर्तव्य है। सबसे बुरी बात ये है कि प्रत्येक राजनीतिक दलों की आई टी सेल तथा विभिन्न राजनेताओं,अभिनेताओं व अन्य सेलिब्रिटीज फैन क्लब अपने समर्थकों तथा फालोवरों को बरगलाने का कार्य कर रहे।बिना तथ्यों की जांच-पड़ताल किये पढ़े-लिखे लोग भी इन फैन क्लबों तथा आई टी सेल द्वारा प्रायोजित लाल-हरे-पीले इत्यादि रंगो द्वारा सजाये गये न्यूज़ तथा न्यूज़ मीम्स शेयर कर रहे हैं। कुछ लोग राजनीतिक वन लाइनर लिखकर #हैशटैग ट्रेंड करा रहे हैं। एक प्रसिद्ध वाक्यांश चल पड़ा है की "तब कहां थे जब..." यह अपने आप में ही अर्ध सत्य है।क्योंकि देशकाल परिस्थितियों के साथ तस्वीरें अपना मूल संदर्भ खो भी देती हैं।हर व्यक्ति हरसमय हर जगह नहीं हो सकता।ये भी सम्भव है कि फलां घटना घटित हो रही हो तो वह नहीं उपस्थित रहा हो अथवा कल अमुक घटना के समय रहा हो आज नहीं हो। आज की कोरोना संक्रमण के समय भी ल
भगत सिंह बलिदान दिवस
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#२३मार्च संसद भवन, नई दिल्ली.. लोकसभा का हॉल। आज का पार्लियामेंट हाउस तब सेंट्रल असेम्बली कहा जाता था। 8 अप्रेल 1929 को सभा की कार्यवाही शुरू हुई और ऊपर से एक बम आकर गिरा। जोर का धमाका, सब धुआं धुंआ.. अफरातफरी मच गई। सदस्य इधर उधर भागे। ऊपर, दर्शक बालकनी से बम फेंका गया था। अब वहां से पर्चे गिरने लगे। फेंकने वाले दो युवक थे। मजे से खड़े थे, नारे लगा रहे थे। उन्होंने भागने की कोशिश नही की, उनके बम से कोई मरा भी नही था।कोई नुकसान नही हुआ, बस एक खम्भे का ग्रेनाइट चटक गया था। कुछ सुरक्षा कर्मियों ने नारेबाजों को पकड़ लिया। एक युवक के पास से पिस्टल बरामद हुई। उसका नाम- "भगत सिंह"। बयान-"बहरों को सुनाने के लिए धमाका किया है". -- मुकदमा शुरू हुआ। लीगली, बम से कोई मरा नही था, मगर बम फटा तो था, सो एक्सप्लोजीव एक्ट लगा। भागने की कोशिश नही की, पर्चे फेंके थे जिसमें सरकार की आलोचना थी, सो राजद्रोह लगा। इन धाराओं में वे शायद दस पन्द्रह साल जेल काटकर छूट जाते, जो बटुकेश्वर दत्त के साथ हुआ भी। लेकिन भगत का मामला फंस गया। पुलिस को खुफिया खबर मिली कि उसके पास जो पिस्टल
अपने हिस्से की छाँव
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#जब_ये_सूरज_से_मांगेगें_अपने_हिस्से_की_छाँव.... उन्होंने कहा बाहर खतरा है कोई बाहर ना निकले वे बाहर निकल पड़े वे जानते थे भूख से बड़ा कोई खतरा नहीं.. उन्होंने कहा घरों के अंदर रहें घर के अंदर कोई खतरा नहीं वे घरों की ओर चल पड़े... अब पुलिस घर नहीं जाने दे रही... उन्होंने कहा संक्रमण के बाद आदमी पंद्रह दिनों में मर जाता है और मैंने पूछा,भूख से? वो रामायण देखने लगे.. अतुल पाण्डेय
मैकाले का भाषण
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#episode9 अब मैं लॉर्ड मेकाले का वह मैकाले का बदनाम भाषण लिखने जा रहा हूँ, जो विकृत रूप में सोशल मीडिया में घूमता रहा है। हम ब्रिटिश इतिहास को तोड़-मरोड़ कर यह कहने के योग्य नहीं रहते कि उन्होंने तोड़ा-मरोड़ा। इसलिए, इसका मूल पाठ करना चाहिए। मैं यहाँ मुख्य अंशों का सरल अनुवाद लिख रहा हूँ। उसके बाद इसमें आपत्तियों पर चर्चा होगी। यह ‘मिनट्स ऑफ एजुकेशन’ है जो कलकत्ता में शिक्षाविद थॉमस मेकाले ने प्रस्तुत किया। “मुझे बताया गया कि यहाँ की शिक्षा 1813 के ब्रिटिश अधिनियम के तहत निर्धारित की गयी है, जिसमें कोई भी बदलाव संवैधानिक माध्यम से ही संभव है। फ़िलहाल एक ख़ास रकम साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए मुहैया की गयी है। यहाँ साहित्य का अर्थ वे तमाम संस्कृत और अरबी ग्रंथ हैं। मैं पूछता हूँ, क्या यहाँ के लोगों को मिल्टन की कविताएँ और न्यूटन की भौतिकी नहीं पढ़नी चाहिए? क्या वे कुश-घास से देवताओं की पूजा करना ही सीखते रहेंगे? अगर हम मिस्र का उदाहरण लें, तो वहाँ भी कभी समृद्ध सभ्यता थी। अब वे कहाँ हैं? क्या उन्हें भी आदि काल के चित्रलेख (हीरोग्लिफिक्स) ही पढ़ाए जाएँ? मुझ
रंगरेज
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सुना है बड़े रंगरेज़ हो तुम कुछ मुट्ठी भर उदासी तुम्हारी चौकठ पर रख आये हैं भर दो ना रंग इनमें। चढ़ा दो ना रंग अपने होठों की सुर्खियों का सफ़ेद !झक सफ़ेद पड़े चेहरे पर। आओ! आओ ना चुपके चुपके दबे पाँव भर लो अंक में मेरे शब्दों को मै शब्दों में ही जीता हूँ तुम्हें। छाता जा रहा है ना! उन काली स्याह आंखो का रंग छीने हुए सतरंगी जीवन में। मैं मिलूँगा वही जहाँ मैं नहीं तुम नहीं रंग नहीं प्यार नहीं सिर्फ हम होंगे। -------------------#यायावर
ढलती उम्र
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उम्र की ढलती दोपहर में उसके अंदर से फूटा प्रेम-अंकुर, जैसे गूलर के फल में पनप रहा हो गूलर का फूल। जैसै अषाढ़ की कच्ची बरसात में सहज ही फूट उठता है मिट्टी-धूल के नीचे दबा पड़ा स्नेह-बीज। अंकुर जड़ें पहुँचीं हृदय की अतलतम कंदराओं में, जहाँ बिखरी पड़ी हैं वय:संधि काल की उमंगो के टुकड़े । जड़ों ने सोखा वर्जनाओं के पहाड़ तले दबे अश्रु-स्वेद के अधकचरे जीवाश्म को, अनायास ही साँसों में भरा उलझती लटों में लिपटी बसंती हवाओ को, पहन लिया नव-पल्लव उम्र की गाँठों पर सहज ही, और उछाल दिया हथेलियों को आसमान के जानिब मुठ्ठी में भर लिया बचा-खुचा आसमान, उड़ते पंछीयों के झुण्ड में से थाम लिया मचलकर किसी भटकते पंछी का हाथ, लगाये अनगिनत गोते साथ-साथ सूरज की आड़ में...✍अतुल पाण्डेय
गाय और स्त्री
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मेरे बाबा ने गाय पाला ऐसा मेरी दादी बताती है जिसके लिए तरह तरह के चारे बोए नर्म राख से घारी बनायीं दादी भी दोनों समय हाथ फेरती पीठ पर आपने हाथों से खिलाते चारा और घास बाबा कहते लक्ष्मी है लक्ष्मी! गाय समय से उकड़ा दी जाती नाद से खूंटे पर खूंटे से बंधी गाय खड़ी रहती बिना हिले डुले बाबा के इशारे से प्रतीक्षा में स्त्रियाँ गाय थीं जो समय से खूंटे से बांध दी गईं।
khula aasaman
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उसे उड़ने के लिये खुुुलआ आसमान चााहिये था फैलाने के लिए पंख मुझे बंद मुट्ठी का कोना जिसमें छिप सकूं दुनिया के झंझवातो से सुदूर घुप्प अंधकार में उसे चाहिए थी माघ की गुनगुनी धूप जहाँ करवट ले सके अल्हड़पन मुझे चाहिए था साँसो का कारोबार ताकि भर सकूं निश्चेष्ट लोगों की साँसे जो मसले हुए हैं खुद की लाशों तले उसे चाहिए था बेमौसम की बरसात जिसमें भींगो दे अपने सभी अनकहे सूखे जज्बात बिखेर दे दुख मे पगी हुई खुशियाँ मिट्टी की सोंधी सुगंध के वास्ते मुझे चाहिए था सभी सितारों की रौशनी जिससे भर दूं दुनिया के पृष्ठ में छिपे अंधेरों में जहाँ जमा की जा रही मक्कारियां उसे चाहिए था परिजात के फूलों की माला जिसे पहनाती अपने प्रियवर को अनायास ही उसके वक्षस्थल पर रखकर माथा मुझे चाहिए था उन करोड़ों भूखे पेटों की आंच जिसमें गलाता पैरों की बेड़ियां और ढालता अनगिनत सुनहरे सपने उसे पंसद था रात्रि के तीसरे पहर में सप्तम सुर मे विलापता वैरागी मुझे पसंद थी खारे चेहरे लिए वियोगी के प्रेम में पगी स्त्रियां हम मिले अनायास व सहज ही क्षितिज और आसमान की तरह।। ___________________________ अतुल कुमार प
रेप
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आज पूरा देश स्तब्ध है, सबके होठों पर अनगिनत सवाल हैं आंखें पथरा चुकी हैं, हृदय में शोले उमड रहे हैं। ऐसा कोई दिन नहीं होता जिस दिन अखबार मैं खून से रंगी खबरें ना होती हो ।ये कैसा देश बन चुका है ?चारों तरफ जोंबी घूम रहे हैं ।देश को फिर एक सनसनीखेज मिल गई है।चैनलों की टी आर पी भी बढ़ रही है। कैंडल मार्च निकल रहे हैं, हाथों में तख्तियां लिए हुए विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं ,लंबे लंबे लेख लिखे जा रहे हैं, कविताएं लिखी जा रही हैं।परन्तु हर बार की तरह हम फिर भूल जाएंगे।हम कभी निर्भया ,कभी दामिनी ,कभी आशिफा ,कभी नैंसी, कभी संजली इत्यादि ऐसे अनगिनत नाम है, किन-किन का नाम लूँ। भारत में हर 6 मिनट पर एक बलात्कार होता है। इतना इतना असुरक्षित माहौल शायद पहले कभी नहीं था स्त्रियां कहीं सुरक्षित नहीं है ना घर में ना पड़ोस में ना स्कूल में नसरत पर ना सड़क पर ना स्टेशन पर ना बाजार में कहीं नहीं। पूरा देश शोक संतप्त है,अभिशप्त है ऐसे समाज में जीने को। मुझे तो पुरूष होने पर ग्लानि हो रही ,शर्म आ रही है National crime bureau के अनुसार बलात्कार के 90% आरोपी पीड़िता की रक्त संबंधी है। हमें क्या डूब मरना नहीं च
मजदूर
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$$$मजदूर $$$ १ मई 2015 मै मजदूर हूँ मै जन्म से मजदूर हूँ शायद उससे भी पहले से मै पैदा होने से पहले से ही चिर मजदूर हूँ आदिम पसीने से लथपथ देह हाथो पर पड़े अकाल की रेखाओं में अंकुरित प्रेम का हस्र हूँ । कितना कुछ भरा है मैंने इन हाथों से कभी अपना पेट, कभी उनका खलिहान, कभी जुबान बंधक, कभी गिरवी मकान अमीरों ,महाजनों के वैभव और ठाट का औचित्यहीन नित्य चिंतन-विमर्श हूँ ... मैं मजदूर हूँ आदिम मजदूर हूँ । मैं मजदूर हूँ धरा का अन्तिम व्यक्ति क्षुधा की आग में सेकी है रोटियां खेला हूँ मजबूर होकर रोटी कि गोटियाँ चिर काल से मैं मजबूर हूँ मैं एक मजदूर हूँ । आसमान के नीचे मेरा आशियां चीर धरती का वज्र कवच सोना उपजाया कर समर्पित जीवन असहाय निराश्रित खुद को पाया तुम्हारी सभ्य दुनिया से सदियों दूर हूँ मैं एक मजदूर हूँ । लगी बोलियाँ बिका बार बार धर्म मोक्ष समाज से मुझे क्या बना रहा समाज का हाशिया रक्त स्वेद अश्रु से सिंचित धरा आयी अन्न की बाढ़ पेट कभी न भरा अपने अस्तित्व से कोसो दूर हूँ हाँ मैं मजदूर हूँ । लिए बुभुक्षित मन व्यथित तन बना रहा सत्ता के नींव की ईट आये तुफान दरके सिघासन गि
आओ बसन्त!स्वागत है तुम्हारा।
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आओ!बसंत तुम्हारा स्वागत है। बसंत पंचमी के पर्व से ही 'बसंत ऋतु' का आगमन होता है। शांत, ठंडी, मंद वायु, कटु शीत का स्थान ले लेती है तथा सब को नवप्राण व उत्साह से स्पर्श करती है। पत्रपटल तथा पुष्प खिल उठते हैं। प्राचीन भारत में पूरे वर्ष को जिन छह मौसमों में बाँटा जाता था उनमें वसंत लोगों का सबसे मनचाहा मौसम था। जब फूलों पर बहार आ जाती, खेतों मे सरसों का सोना चमकने लगता, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगतीं, आमों के पेड़ों पर बौर आ जाता और हर तरफ़ रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं। वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवे दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता था जिसमें विष्णु और "कामदेव" की पूजा होती, यह वसंत पंचमी का त्यौहार कहलाता था। बसंत को ऋतुओं का राजा अर्थात सर्वश्रेष्ठ ऋतु माना गया है। इस समय पंचतत्त्व अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रूप में प्रकट होते हैं। पंच-तत्त्व- जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि सभी अपना मोहक रूप दिखाते हैं। आकाश स्वच्छ है, वायु सुहावनी है, अग्नि (सूर्य) रुचिकर है तो जल पीयूष के समान सुखदाता और धरती, उसका तो कहना ही क्या वह तो मानो सा
लूट
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हमहुँ लूटी तुहुं लूट लुटे के आज़ादी बा गद्दी पर चढ़ल नेतन के अबकी ईहे मुनादी बा कतली-खूनी-चोर उचक्का चुनि के आइल संसद में जनता की अधिकार में हत्या मिलके कइलें संसद में बंगला गाड़ी गहना गुरिया के भइल वेवस्था संसद में चोर लफंगा बनल विधायक पहिरत कुर्ता खादी बा, हमहुँ लूटी तुहुं लूट लुटे के आज़ादी बा।। परधानी में लूट लूट के महल बनवने नेता जी वोट की बदले दारू मुर्गा खूब चलवले नेता जी घूस खिया के थानेदार के करे दलाली नेता जी गण पर बइठल तंत्र आज बा जनता के बर्बादी बा हमहुँ लूटी तुहुं लूट लुटे के आज़ादी बा।। अंतरि मंत्री सांसद फांसद के लमहर चाकर गाडी बा गद्दी पर चढ़ल नेतन के अबकी ईहे मुनादी बा।।
criminal&justice: behind the door
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क्रिमिनल जस्टिस सीज़न 2 : बिहाइंड द क्लोज्ड डोर यह एक गुणवत्ता परक समसामयिक वेब सीरीज है,जिसे अवश्य ही देखा जाना चाहिए।पंकज त्रिपाठी के उत्कृष्ट अभिनय से आच्छादित यह वेब सीरीज ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण विमर्श खड़ा करती है।इसका शीर्षक 'अपराध और न्याय:बन्द दरवाजे के पीछे'।अपराध क्या है और अपराधी कौन है?न्याय क्या है और न्याय कैसे मिलता है,यह एक व्यापक विमर्श है।सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 497 में वर्णित व्यभिचार (एडल्ट्री) को अपराध की श्रेणी से बाहर करते हुए इसे एक सामाजिक बुराई (अनैतिक कार्य) के रूप में उल्लेखित किया है। क्या नैतिकता और कानून में एकरूपता होनी चाहिए? क्या नैतिकता ही कानून का आधार होनी चाहिए? प्रथम प्रश्न के संदर्भ में, चूंकि नैतिकता की सामाजिक स्वीकार्यता होती है इसलिए नैतिकता और कानून में साम्य होने से कानून का पालन आसानी से होता है। वहीं नैतिकता अर्थात सामाजिक स्वीकार्यता के अभाव में कानून का पालन कठिन हो जाता है।नैतिकता और कानून में विरोधाभास से सामाजिक तनाव की स्थिति पैदा हो सकती है क्योंकि कानून को बनाने व लागू करने वाले अंग भी