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Showing posts from April, 2021

पीपल और ऑक्सीजन

हिन्दू आस्था में पीपल के पेड़ को पूजनीय माने जाने पर कुछ लोग तर्क देते हैं कि पीपल ही एकमात्र ऐसा पेड़ है जो रात में भी ऑक्सीजन देता है। क्या वास्तव में ऐसा है? सबसे पहले तो पेड़-पौधों द्वारा ऑक्सीजन के उत्सर्जन की प्रक्रिया को समझना होगा। जैसा की आप जानते हैं कि पेड़ पौधे फोटोसिंथेसिस क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाते हैं जिसमें वे सूर्य की रोशनी में co2 का प्रयोग कर भोजन तैयार करते हैं। इस क्रिया में ऑक्सिजन मुक्त होती है और उर्जा ग्लूकोस के रूप में संचित हो जाती है। इसके साथ ही जब पेड़-पौधे इस संचित उर्जा का उपयोग अपनी जैविक क्रियाओं के लिए करते हैं तो इसमें CO2 मुक्त होती है। इस क्रिया को respiration कहा जाता है। अतः पौधे अपनी जैविक क्रियाओं के द्वारा ऑक्सीजन और CO2 दोनों मुक्त करते हैं।  अधिकांश पेड़-पौधों में हर समय गैसों का आदान प्रदान चलता रहता है। दिन में चूँकि फोटोसिन्थेसिस क्रिया होती है इसलिए दिन के समय ऑक्सीजन का उत्सर्जन प्रमुखता से होता है। रात्रि में फोटोसिन्थेसिस क्रिया न होने के कारण CO2 का उत्सर्जन अधिक होता है। ये फोटोसिन्थेसिस की आम क्रिया है जो अधिकतर पेड़-पौधों में सम्पन्न

पृथ्वी दिवस:एक आलेख

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#पृथ्वी_दिवस_पर_विशेष_आलेख आज मैं दृश्यमान ब्रह्मांड के सुपरक्लस्टर के, वीगो सुपर क्लस्टर के, लोकल आकाशगंगा समूह में स्थित मंदाकिनी आकाशगंगा की ओरियन भुजा में स्थित सौर मंडल के, पृथ्वी नामक ग्रह पर स्थित एशिया महाद्वीप के, भारतीय उपमहाद्वीप के मध्य में भारतवर्ष नामक देश में उपस्थित, उत्तर प्रदेश नामक राज्य के अंत में एक देवरिया जनपद के पुच्छ पर स्थित सलेमपुर तहसील के केंद्र में अवस्थित #श्री_रैनाथ_ब्रम्हदेव_स्नातकोत्तर_महाविद्यालय_सलेमपुर की #शिक्षा_संकाय में कुर्सी पर बैठा हुआ,यह लिख लिख रहा हूं।  हमारी आकाशगंगा का 100000 प्रकाश वर्ष वर्ष व्यास  तथा 3000 प्रकाश वर्ष मोटी सर्पिलाकार संरचना है। हमारा सूर्य इसके केंद्र से 26000 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है तथा 250 किलोमीटर प्रति सेकेंड की दर से आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा कर रहा है ।जबकि एक प्रकाश वर्ष में 95.5 खरब किलोमीटर के बराबर होता है। कितना विशालकाय है हमारा ब्रह्माण्ड!इसी अकाशगंगा की ओरियन भुजा में स्थित सौर मण्डल के एक ग्रह पृथ्वी पर जीवन उत्पन्न हुआ था।वह जीवन आज से करीब 400 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था। विभिन्न भौ

मानव 7

#letter7 #schoolhistory हमने अब तक जाना कि कई मानव प्रजातियों में अंतत: होमो सैपिएन्स ही बच पाए। हमने यह भी देखा कि मानव अफ़्रीका से निकल कर पूरी दुनिया में फैल गए। मुमकिन है कि एक ही परिवार का एक व्यक्ति अमरीका चला गया, और उसका एक दूर का भाई ऑस्ट्रेलिया। यह सब उन्होंने जंगलों, नदियों, हिम-सेतु (लैंड ब्रिज़) को लाँघते हुए किया।  वे अपने लिए एक बेहतर जगह तलाश रहे थे, जहाँ आराम से भोजन मिले, शिकार मिले। जहाँ ख़तरनाक जानवर कम हों, और जहाँ मौसम अच्छा हो। अफ़्रीका रहने के लिए बुरी जगह नहीं थी, मगर वहाँ का मौसम बुरा था। कभी भीषण गर्मी और सूखा, तो कभी पूरी नील नदी में बाढ़। उतने ही भयावह जंगली जानवर। इस कारण आज से तीस हज़ार साल पहले सबसे अधिक जनसंख्या आज के एशिया क्षेत्रों आकर बस गयी, जहाँ की नदियों के दोनों तरफ़ फलते-फूलते जंगल होते। यही अनुपात आज तक कायम है और आधी से अधिक आबादी एशिया में ही है।  उस समय उनके पास न एयरकंडीशर था, न अच्छे कपड़े।  न वह पक्के घर बनाते, न उनके पास वाहन थे। यह ज़रूर मालूम पड़ता है कि जंगली कुत्ते उनके शिकार में मदद करते, मगर उनमें स्वयं मौसम और ख़तरा भाँपने की क्षम

मानव 8

#letter8 #schoolhistory पूरी दुनिया में दो तरह के लोग रहते हैं। एक, जो हज़ारों वर्षों से चल रही परंपरा से जीना चाहते हैं, जिन्हें परंपरावादी (कंज़रवेटिव) कहते हैं। दूसरे, जो परंपराओं को तोड़ कर नयी गढ़ना चाहते हैं, जिन्हें प्रगतिवादी (प्रोग्रेसिव) कहते हैं। दोनों मिल कर कुछ अच्छा कर जाते हैं।  मनुष्य मुख्यत: मांस पका कर या मछली मार कर खाते थे। बारह हज़ार वर्ष पूर्व कुछ आदमी फरात नदी के किनारे से गुजर रहे थे। वहाँ उन्होंने देखा कि लंबे घास हैं, जिनमें कुछ बालियाँ निकली है।  वे पहले फल-सब्जी खाते रहे थे, मगर यूँ घास नहीं चबाते थे। अगर आज के भोजन का मेन्यू देखा जाए, तो उसमें से अधिकतर चीजें गायब होंगी। न चावल, न ब्रेड, न दाल, न मक्खन। फिर भी उनका पोषण संतुलित था। चलते रहने की वजह से उन्हें कभी एक फल मिल जाता, तो कभी एक जंगली हरी सब्जी। कभी कंद उखाड़ लिया और कभी ताज़ा मांस खाया। हर दिन कुछ नया खाना, हर मौसम में अलग खाना। यह नहीं कि रोज चावल-दाल ही खा रहे हैं। इसमें सरप्राइज़ रहता कि वह आखिर क्या खायेंगे, और सबसे अच्छी बात कि भोजन वह मेहनत से हासिल करते। जब भूख लगती, तभी खाते। जब उन्होंने न

मानव 6

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#letter6 #schoolhistory “हम यह कैसे कह सकते हैं कि मानव अफ़्रीका से ही आए?” “मानव अफ़्रीका से नहीं आए। होमो सैपिएन्स अफ़्रीका से आए, यह माना जाता है।  “यानी मानव प्रजातियाँ अन्य स्थानों पर थी?” “इसके एक नहीं कई सबूत हैं। भारत में नर्मदा स्त्री, रामापिथिकस, चीन में दाली मैन, इंडोनेशिया में जावा मैन आदि” “मगर सैपिएन्स अफ़्रीका से ही आए, यह कैसे कहा जा सकता है? हो सकता है भारत में भी रहे हों?” “जब तक अफ़्रीका से पुराने सैपिएन्स मिल नहीं जाते, यह कहा नहीं जा सकता। अफ़्रीका में तीन लाख वर्ष पुराने सैपिएन्स मिले, लेकिन अन्य स्थानों पर तीस से साठ हज़ार वर्ष पुराने ही मिल सके। ऐसा नहीं कि खोजा नहीं गया। भारत ने तो डायनॉसोर के अंडे तक खोज लिए, कई मानव अस्थियाँ मिली। यूरोप में नियंडरथल खूब मिले। मगर सैपिएन्स प्रजाति में अफ़्रीका अभी लाखों वर्ष की लीड लेकर चल रहा है।” “इस बात की क्या गारंटी है कि अफ़्रीका से ही मानव भारत या अन्य स्थानों पर गए?” “आज से तीन-चार दशक पहले यह सब पक्का कहना कठिन था। लोग उनके औजारों से, भाषा से, रस्मों से, रंग से, बनावट से, धर्मग्रंथों की बातों से, आज के ब्ल

सतुआन

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#लोकपर्व_सतुआन_और_अंबेडकर_जयंती आज १४ अप्रैल की तिथि अति महत्वपूर्ण तिथि है।एक तो आज अम्बेडकर जी की जयंती है,दूसरे की भोजपुरिया समाज का प्रमुख लोकपर्व कर्क संक्रांति अर्थात् सतुआन है।यह हम गवँई खेतिहर लोगों का सादा और प्रकृति के अनुकूल त्यौहार है।रबी की फसल पक के तैयार है।चहूँ ओर खेतों में धूसर सफेदी फैली हुई है।गेहूँ की प्रौढ़ बालियाँ अपने धवल शीर्ष झुकाई हुई हैं।बसंत और ग्रीष्म ऋतु का संधिकाल है।रबी की अगेती फसलें जैसे चना,मटर,जौ इत्यादि किसानों ने पहले ही काट-बांध-ढो-पीट-ओसा- फटकर सुरक्षित कर लिया है। कहीं ट्रैक्टर और कम्बाईन हार्वेस्टर की तो कहीं खेतों में हसुंआ से गेहूँ के डण्ठल काटने की चिर-परिचित तीक्ष्ण पर आनंददायक ध्वनि सुनाई पड़ रही है। सूरज की तल्खी के कारण पछुआ हवा की शीतलता बस अब जाने को है।पछुआ हवाओं और बालियों के मिलन से सुमधुर खन-खन की ध्वनि किसानों के हृदय को आनंदित कर रही है।आम की डालियों पर बैठे हुए पक्षी-युगल आम के नव-विकसित फलों को निहार कर विभोर हुए जा रहे।महुआ के मादक पुष्प की सुगंध से बौरायी कोयल कूके जा रही।लाक-डाउन के कारण नटखट बच्चे घरों में से ही

मानव 2

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#Lette r2 #schoolhistory हम हर दिन घर नहीं बदलते। हर दिन तो क्या हर महीने भी नहीं बदलते। लेकिन, हमारे पूर्वज अपनी जगह बदलते रहते थे। बेहतर फलों के लिए। बेहतर शिकार के लिए। बेहतर जगह छुपने के लिए। जहाँ घने जंगल हों, लंबी घास हो, आस-पास कोई नदी हो। वे ऐसे स्थान तलाशते-तलाशते सैकड़ों किलोमीटर चलते जाते। यह उनकी मर्ज़ी कि नयी जगह पर टिक जाएँ, या वापस लौट जाएँ। इसे ख़ानाबदोश (नोमैडिक) जीवन कहते हैं। जब अमला का परिवार अफ़्रीका से चल कर आज के अरब या भारत तक आया होगा, तो उन्हें कितना वक्त लगा होगा? अगर वे रोज बीस-पच्चीस किलोमीटर चलते हों तो एक साल से कुछ अधिक वक्त। अगर वह महीना-दो महीना रुक-रुक कर चलते हों तो पाँच-दस साल भी लग गए होंगे। उनको कोई जल्दी तो थी नहीं। उन्हें तो खुद नहीं पता था कि वे कहाँ जा रहे हैं। शायद अमला का परिवार कभी पहुँच ही न पाया हो। उनके सौ साल बाद कोई दूसरा परिवार आया हो। जब वे भारत आए तो क्या उन्हें किसी दूसरे आदमी का परिवार मिला? ऐसा परिवार जो उनसे पहले अफ़्रीका से भारत आ चुका हो? या एक ‘मेड इन इंडिया’ आदमी, जो भारत में ही इवॉल्व हुआ हो?  एक पुरातत्वविद (आर

मानव 3

#Letter3 #schoolhistory कई बड़े परिवार के लोग एक बड़े घर में रहते हैं। तीन पुश्तें एक साथ रहती हैं। उनके पड़ोस में उनके दादा के भाइयों का परिवार रहता है। इस तरह पूरे गाँव में एक बड़ा परिवार रहता है, जिनके पूर्वज कभी एक ही रहे होंगे।  कई स्थानों पर पूर्वजों का पता ख़ास उपनाम से लगता है। जैसे दुनिया भर के माउंटबेटन उपनाम के व्यक्ति आपस में जुड़े हैं। अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडेन और नागपुर के एंग्लो-इंडियन बाइडेन परिवार के पूर्वज एक हैं। भारत में माना जाता है कि एक गोत्र और मूल के लोगों के पूर्वज एक हैं। लेकिन, इस बात को पक्का करना हो, तो कौन सी तरकीब लगानी होगी? हम सबका एक डीएनए है, जो हमारा हस्ताक्षर है। वह यूनीक है, किसी से नहीं मिलता। सगे भाई-बहन के डीएनए में कम से कम एक लाख अंतर होते हैं। एक परिवार के दो व्यक्तियों में दो-तीन लाख अंतर मिल सकते हैं। हमारे माता-पिता से भी हमारा डीएनए अलग होता है।  यूँ समझ लें कि माता और पिता ने ताश के पत्तों की दो गड्डियाँ सामने रखी, और मिला कर शफ़ल कर दी। अब जो पुत्र रूप में ताश की गड्डी मिली, उसमें पत्ते तो उनके ही हैं, मगर उन्हें भी नहीं मालूम कि

मानव 5

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#letter5 #schoolhistory “हमें कैसे पता लगता है कि पचास हज़ार या एक लाख वर्ष पहले क्या हुआ था? हम कैसे कह सकते हैं कि वह कंकाल इतना पुराना है?” “आपने रेत-घड़ी देखी होगी। आवर-ग्लास। उसमें रेत जब पूरी नीचे गिर जाती है, तो हम कहते हैं कि आधा घंटा हो गया, या एक घंटा हो गया। इसी तरह कार्बन लगभग छह हज़ार वर्ष में टूट कर आधा हो जाता है, बारह हज़ार वर्ष में चौथाई, अठारह हज़ार वर्ष में आठवाँ हिस्सा। उसे माप कर हमें पता लग जाता है। अगर हमें यूरेनियम उन पत्थरों में मिल गए, तो वह साढ़े चार अरब वर्ष या उससे पुरानी तारीख़ भी बता देगा!” “लेकिन यह कैसे पता लगता है कि वह सैपिएन्स हैं या नियंडरथल?” “यह उनके कंकालों के आकार-प्रकार से पता लगता है। नियंडरथल कद में छोटे, कुछ मोटे-तगड़े और चौड़ी नाक वाले होते थे। उनकी खोपड़ी भी बड़ी होती थी। मुमकिन है कि वह तुमसे फुटबॉल में हार जाते, मगर कुश्ती में तुम्हें धोबिया-पाट दे देते! अब उनके डीएनए भी मिल गए हैं, तो यह अधिक आसान हो गया है।” “नियंडरथल का डीएनए?” “हाँ। उनके कंकाल से उनका डीएनए भी निकल गया, और उसकी पूरी जीनोम यानी उसका पूरा चिट्ठा भी। अब वह म

मानव 4

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# Letter4 #schoolhistory अफ़्रीका से चलते-चलते मनुष्य पूरी दुनिया में पसर चुके थे। यह जो भी क़ाफ़िला था, वह संभवत: एक ही आदम गाँव या एक ही परिवार का था। एक ही वंश के लोग। बात अज़ीब है, मगर डीएनए तो यही कहता है। ये सभी होमो सैपिएन्स थे, जिनकी मुलाकात दुनिया के अन्य मानव प्रजातियों से हो रही थी।  जब ये भारत आए तो घूमते-फिरते वह भोपाल के निकट भीमबेतका (भीम बैठक) की गुफ़ाओं में बस गये। ऐसी और भी गुफ़ाएँ थी, मगर यह एक बड़ा केंद्र था। यह उनका हेडक्वार्टर था। यहीं से योजना बना कर वह पूरे दक्षिण एशिया, चीन, अंडमान, फ़िलीपींस, इंडोनेशिया, लंका और यहाँ तक कि ऑस्ट्रेलिया तक गए। अब सवाल यह है कि क्या आज आप भारत से टहलते हुए ऑस्ट्रेलिया जा सकते हैं? फिर वे कैसे चले गए, और इसके प्रमाण क्या हैं?  एक प्रमाण तो डीएनए ही है। दूसरी बात कि उस समय यानी आज से पचास-साठ हज़ार वर्ष पहले समुद्र उथला था, और कुछ उछल-कूद करते, कुछ छोटी डोंगियाँ बना कर पहुँचा जा सकता था। यह माना जाता है कि ऑस्ट्रेलिया उससे पहले एक वीरान द्वीप था, जहाँ आदमी तो क्या बंदर, गुरिल्ला आदि भी नहीं थे। वहाँ के पहले

मानव 5

#letter5 #schoolhistory “हमें कैसे पता लगता है कि पचास हज़ार या एक लाख वर्ष पहले क्या हुआ था? हम कैसे कह सकते हैं कि वह कंकाल इतना पुराना है?” “आपने रेत-घड़ी देखी होगी। आवर-ग्लास। उसमें रेत जब पूरी नीचे गिर जाती है, तो हम कहते हैं कि आधा घंटा हो गया, या एक घंटा हो गया। इसी तरह कार्बन लगभग छह हज़ार वर्ष में टूट कर आधा हो जाता है, बारह हज़ार वर्ष में चौथाई, अठारह हज़ार वर्ष में आठवाँ हिस्सा। उसे माप कर हमें पता लग जाता है। अगर हमें यूरेनियम उन पत्थरों में मिल गए, तो वह साढ़े चार अरब वर्ष या उससे पुरानी तारीख़ भी बता देगा!” “लेकिन यह कैसे पता लगता है कि वह सैपिएन्स हैं या नियंडरथल?” “यह उनके कंकालों के आकार-प्रकार से पता लगता है। नियंडरथल कद में छोटे, कुछ मोटे-तगड़े और चौड़ी नाक वाले होते थे। उनकी खोपड़ी भी बड़ी होती थी। मुमकिन है कि वह तुमसे फुटबॉल में हार जाते, मगर कुश्ती में तुम्हें धोबिया-पाट दे देते! अब उनके डीएनए भी मिल गए हैं, तो यह अधिक आसान हो गया है।” “नियंडरथल का डीएनए?” “हाँ। उनके कंकाल से उनका डीएनए भी निकल गया, और उसकी पूरी जीनोम यानी उसका पूरा चिट्ठा भी। अब वह मिलान करने से

गांधी या सावरकर

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जो यूं होता तो क्या होता ???  बंटवारा, हिंदुस्तान का। रेडक्लिफ लाइन जमीन पर ही नही, आम हिंदुस्तानी के दिल पर चला हुआ वो चाकू है, जिसका घाव, मौजूदा हिन्दू-मुस्लिम डिबेट के बीच, रह-रह कर मवाद फेंक रहा है।  दो बड़ी ख्वाहिशें हमारी है, इतिहास से। पहली कि काश, बंटवारा न हुआ होता। और दूसरी- काश, कांग्रेस न होती, गांधी नेहरु भी न होते। तो धर्मनिरपेक्षता का नाटक न होता, 1947 में हिन्दू राष्ट्र घोषित हो गया होता।  आइये दोनों ख्वाहिशों को उस दौर परिस्थितियों को सुपर-इंपोज करते हैं।  -- 1937 के भारत का नक्शा देखिये। ये बर्मा से बलूचिस्तान तक फैला है। इसमे एक केंद्रीय सरकार है, वाइसराय इसके राष्ट्रपति की तरह हैं। इसके अंडर दो तरह के राज्य है।  1- एक तो वैसा ही, जो आज है। याने केंद्र के नीचे एक गवर्नर और  विधानसभा, यूनाइटेड प्रोविन्स ( लगभग उत्तर प्रदेश) सेंट्रल प्रोविन्स ( लगभग मध्यप्रदेश) बंगाल ( बिहार,उड़ीसा, पच्छिम बंगाल और बंगलादेश) मद्रास वगेरह ये ब्रिटिश डायरेक्टली शाशन करते थे। ये देश का 52-55% हिस्सा था। इसे एक गिनिए।  2- बाकी देशी रियासतें। जो सेना, संचार, विदेश छोड़, शेष मामलों

कोरोना 2 और सरकार की जबाबदेही

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 कोरोना वायरस की सेकंड स्ट्रेन शुरू हो चुकी है।कुछ राज्यों में लॉकडाउन,आंशिक लॉक डाउन लग रहा है। देश की स्थिति बहुत गंभीर है।अभी तक कोरोना संक्रमण से मरने वालों की संख्या 1500000 से भी अधिक हो गयी है।हॉस्पिटलों में एक बार फिर बेड की कमी,स्टाफ  की अनउपलब्धता और संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं।,कहीं रात का कर्फ्यू, कहीं आने-जाने पर पाबंदी लगनी शुरू हो गई है। राज्य सरकारें अपने अपने स्तर से लॉकडाउन और संभव विकल्प पर काम करना शुरू कर रही हैं।परंतु सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इस महामारी की दौर में हमारे भारत चार राज्यों में चुनाव आयोजित किए गए। हमारे उत्तर प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत पंचायत चुनाव कराए जा रहे हैं। नेताओं की रैलियां हो रही है।रोड शो हो रहे हैं काफिले निकल रहे हैं। समूह में प्रचार-प्रसार हो रहा है। दुर्भाग्य से हमारे देश के प्रधानमंत्री,गृहमंत्री,विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री और समकालीन सत्तानशीं,जिनके कंधों पर इस देश का भविष्य निर्माण निर्भर है वह भी चुनाव प्रचार में लगे हुए हैं।।प्रत्येक राजनितिक प्रतिष्ठान चुनाव में डूब हुआ है।प्रधानमंत्

गुलबिया के चिठ्ठी

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गुलबिया क चिठ्ठी  - कैलाश गौतम कहीं निरदयी कि बेदरदी कहीं हम भुलक्‍कड़ कहीं कि अलहदी कहीं हम कि झुट्ठा कि लंपट कि बुद्धू अनाड़ी कि अकड़ू कि अँइठू कि पक्‍का खेलाड़ी गयल हउवा जब से न मुँह फिर देखउला न देहला सनेसा न चिट्ठी पठउला न कहले कहाला न सहले सहाला हमैं दाल में कुछ हौ काला बुझाला झरत हउवै पतई बहत हौ झकोरा खलत हउवै ऐना खलत हौ सिन्‍होरा अ बान्है के हौ बार मीसल परल हौ बिहाने से तोहरे पर गुस्‍सा बरल हौ बजत हौ झमाझम रहरिया क छेमी सबै भइया बाबू सिवाने क प्रेमी चढ़ल हउवै फागुन उपद्दर मचल हौ सबै रंग में डूबल न केहू बचल हौ हौ होठे पर फागुन कपारे पर फागुन बजावत हौ चिमटा दुआरे पर फागुन लवर दिन में लहकै परासे के ओरी कियरिया लगै अइसे रंग क कटोरी फरल हउवै सहिजन दुआरे क जब से उहै हउवै ठीहा दुलारे क तब से बड़े मन से फगुआ जियत हउवैं बुढ़ऊ अ भ‍गतिन के मंठा पियत हउवैं बुढ़ऊ जहाँ देखैं बुढ़ऊ टकाटक निहारैं एको दाँत नाहीं हौ मसगुर चियारैं भगत कंठी वाले चुहल पर उतारू उहैं ढेर बइठैं जहाँ मेहरारू का का बताईं आ कइसे बताईं बिपत पर बिपत हौ कहाँ तक गिनाईं एहर कवनो करवट न आवै ओंघाई अ देखीं चनरमा त फूट