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Showing posts from September, 2023

घड़ियां

घडियां दौड़ रहीं  सूरज भी दौड़ रहा  शहर दौड़ रहे गाँव भी रेग रहा सब भाग रहे  कहीं कोई नहीं पहुंचा कहीं भी, नदियों सकुच के नलो में बह चली  जंगल भागते पहुँच गया लान और छतों पर जमीन पहुंच गई लाल कारपेट के नीचे  पर्वत ने पैठ बनायी खड़ी कोट के हृदय खण्डो में वो भी चली शरीर के भीतर पर नहीं पहुंची कहींP। उसने भी थामी वक्त की डोर दौड़ पड़ी बिना शर्त  दौड़ पड़ी आसमान की ओर घडियो की बात सुनी उसने कहीं नहीं पहुंची वो भी  उसने आटे में गूँथ दिया प्रेम उसने टाँक दिया प्रेम को उखड़ते बखिये में   उड़ेल दिया प्रेम बेसिन के जूठे बर्तनों में भर दिया बच्चों की टिफिन में चढ़ा दिया प्रेम को खुस्क होठो पर अलसाये शाम के चाय की कड़वी घूंट में रात के निस्तब्धता में  अँगुलियों पर गिन गिन कर खर्च किया प्रेम साँसों की धौंकनी पर रख कर पोछ डाला प्रेम पात्र। सुबह के अलार्म से उठी आँखे उठाती हैं किचेन बाथरूम  टिफिन बिस्तर चादर नमक तेल की छवियां  चढ़ते दिन के साथ बढ़ती सांसो की बोझ धकियाते पाँव लाकर पटक देते हैं  दम घोटूं बिस्तरो पर छितराये सन्नाटे की चादर पर। उसने घड़ियों से चुराये  प्रेम के एक आध कतरों को सहेजा हृदय क

चीन

- अक्सई चिन, अरे वही जिसे नेहरू चीन से हार गए - भक्त ने गोल गोल आखों से खुलासा किया  - भक्त भाई, कोई चीज आप तब हारते हो, जब वो आपके पास पहले से हो। तो बताओ, अक्सई चिन भारत मे कब शामिल हूुआ? वो कौन वीर था। किसने इसे जीतकर भारत मे मिलाया। मौर्य ने, मुगल ने, अग्रेजों ने ??      भक्त, पप्पा से पूछने गया है। अभी तक लौटकर नही आया।  --- आएगा भी नही, पर मै आपको बताता हूं। अक्साई चिन जीतने वाला न कोई वीर था, न राजा, न जनरल। वो एक नक्शानवीस था, सर्वेयर... नाम था जानसन । तो जानसन भईया ने नक्शे पर एक लाइन खींची और अक्साई चिन भारत मे आ गया। यह 1855 की बात है।  आप कहेंगे कि ठीक है भई। नक्शे पर ही सही सही, नेहरू को क्या हक था उसे छोड़ देने का।  यह भी गलत है। चीन को अक्साई चिन भेट करने वाला भी कोई राजा, जनरल या भारत का प्रधानमंत्री नहीं था। वो एक दूसरा नक्शानवीस था। ब्रिटिश अफसर, एन्वॉय / राजदूत था । चीन को सन्तुष्ट करने के लिए भाई ने नक्शे पर दूसरी लाइन खीची, और अक्साई चिन चाइना मे चला गया।  इन दूसरे भैया का नाम था मैक्कार्टनी... साल था 1896। नेहरू इस वक्त सात साल के थे। पर मक्कार मैक्कार्टनी का सारा

सूरज

वो सुबह होते ही उठा लेता है माथे पर सूरज और डूबो देता है पच्छिम में शाम होते होते फिर कल उठाने के लिए... वो खर्च करता है पसीने की एक-एक बूंद दो चार जोड़ी आखों के वास्ते एक घोंसला बनाने के लिए... वो उधार देता है सूरज को कोयला गर्मियों में ताकि बरसा सके रौशनी सबके लिए और खुद के लिए आग... निर्निमेष आँखों में दमित भावों के ग्लेशियर उसने थाम रखें हैं कई पीढ़ियों से  क़यामत के इंतिजार में... ____________________ पेन्टिंग गूगल से साभार

प्रिय

प्रिय! मुझे पहचान लेना,हाथ मेरा थाम लेना.. जब गगन का सूर्य जाकर तिमिर में डूबता हो जब अकेला चाँद अलसायी नदी को चूमता हो जब दिवा के स्वप्न आँखो में चटाचट टूटते हों तब खड़े हो कर हिमालय से मुझे अंकवार देना प्रिय! मुझे पहचान लेना... जब मेरी आँखों के आगे दुःख की बदली छा रही हो जिंदगी की रेत हाथों से फिसलती जा रही हो प्रश्न अधरों पर ठहर कर राह अपनी भूल जायें थाम कर आँखो से इनको उत्तरों की राह  देना प्रिय! मुझे पहचान लेना... जब मेरे हाथों से मेरी प्रथम कविता जा चुकी हो जब जीवन की निशा में सांस अंतिम आ गयी हो जब कुहासा में किरण की आस का आभास ना हो हाथ मेरे थाम कर तुम प्राण को आधार देना प्रिय!मुझे पहचान लेना... ✍🏻 अतुल पाण्डेय

उसका प्रेम

________________________ उसे खुला आसमान चाहिए था फैलाने के लिए पंख मुझे बंद मुट्ठी का कोना जिसमें छिप सकूं  दुनिया के झंझवातो से सुदूर घुप्प अंधकार में  उसे चाहिए थी माघ की गुनगुनी धूप जहाँ करवट ले सके अल्हड़पन  मुझे चाहिए था साँसो का कारोबार ताकि भर सकूं निश्चेष्ट लोगों की साँसे जो मसले हुए हैं खुद की लाशों तले उसे चाहिए था बेमौसम की बरसात  जिसमें भींगो दे अपने सभी अनकहे सूखे जज्बात बिखेर दे दुख मे पगी हुई खुशियाँ  मिट्टी की सोंधी सुगंध के वास्ते मुझे चाहिए था  सभी सितारों की रौशनी जिससे भर दूं दुनिया के पृष्ठ में छिपे अंधेरों में जहाँ जमा की जा रही मक्कारियां उसे चाहिए था परिजात के फूलों की माला जिसे पहनाती अपने प्रियवर को अनायास ही उसके वक्षस्थल पर रखकर माथा मुझे चाहिए था  उन करोड़ों भूखे पेटों की आंच जिसमें गलाता पैरों की बेड़ियां  और ढालता अनगिनत सुनहरे सपने  उसे पंसद था रात्रि के तीसरे पहर में  सप्तम सुर मे विलापता वैरागी मुझे पसंद थी खारे चेहरे लिए  वियोगी के प्रेम में पगी स्त्रियां  हम मिले अनायास व सहज ही क्षितिज और आसमान की तरह। _____________✍अतुल पाण्डेय ।

उम्र

उम्र कुछ खिंची खिंची सी लगती है बनावटी हाव भाव चेहरे पर पुती वरिष्ठता की परिभाषा  ड्रेस कोड की खड़ी पंक्तियाँ मोटे लेंसों के परिधि पर खड़ा खड़ा  देखता हूँ मैं, सबकुछ पीछे जाते हुए  सिमटे हुए बचपन को कैशोर्य का विद्रोह को और समाज के नजरो से दबे वर्तमान को आईने लगाये चेहरों में अपना प्रतिबिम्ब  उदास व धुँधला नज़र आता है। मेरे वजूद के टुकड़ों की अठखेलिया मेरे किरदार को खण्डित करती हैं  आँखे चमक उठती हैं  जिम्मेदारियां सर पर सवार होती हैं और जिन्दगी चल पड़ती है।। ✍️अतुल पाण्डेय Disclaimer:-एक बार मास्क पहनने के बाद कृपया नीचे ना खींचे।

आग

आओ प्रिय! उस पार चल के देखते हैं। इस धरा पर अब न है अधिकार मेरा रात्रि के आघात से व्यथित है सबेरा भाग्य का सूरज वो डूबा जा रहा है चाहता क्या है मेरी नियति का चितेरा? इस नदी के अवस कूल अब नोचते हैं आओ प्रिय उस पार चल के देखते हैं।। मेरा प्रिय क्यों दूर मुझसे हो रहा है? जाने किस संसार में वो खो रहा है उसके दृग जल मेरे दृग से बह रहे हैं थाम लो ना ,हो कर याची कह रहे हैं।। अब सहज बाहुपाश क्यों कर घेरते है। आओ प्रिय!उस पार चल कर देखते हैं। क्रमशः -अतुल पाण्डेय Pic- captured by me and edited by someone😊

उस पार

आओ प्रिय! उस पार चल के देखते हैं। इस धरा पर अब न है अधिकार मेरा रात्रि के आघात से व्यथित है सबेरा भाग्य का सूरज वो डूबा जा रहा है चाहता क्या है मेरी नियति का चितेरा? इस नदी के अवस कूल अब नोचते हैं आओ प्रिय उस पार चल के देखते हैं।। मेरा प्रिय क्यों दूर मुझसे हो रहा है? जाने किस संसार में वो खो रहा है उसके दृग जल मेरे दृग से बह रहे हैं थाम लो ना ,हो कर याची कह रहे हैं।। अब सहज बाहुपाश क्यों कर घेरते है। आओ प्रिय!उस पार चल कर देखते हैं। क्रमशः -अतुल पाण्डेय Pic- captured by me and edited by someone😊

शेष

जो शेष बच गया शून्य नहीं था ,प्यार था.. जीवन शान्त कोलाहल का एक ज्वार था। दुख की सीमा सन्तापों में, सुख के अप्रतिम प्रलापो में, शब्दों से विचलित भावो में, सकुचे-सिमटे से बाँहों में, सुख का झीना संसार था; जो शेष बचा गया शून्य नहीं था, प्यार था.. पनघट से पनिहारीन रूठी पतझड़ में अमराई डूबी, मोती ढूलक चले वनपथ पर, कवि से वो कविताई छूटी, सुख की दुख का अवगुन्ठन पहने जीवन का विस्तार था; जो शेष बच गया शून्य  नहीं था,प्यार था.. भावों की जब मनका गूंथी शब्दों के आगे बेबस था, सपनो की जब जब आहूति दी अपनो के आगे बेबस था, तेरा रूक कर मुड़ जाना ही मेरा असीम विस्तार था; जो शेष बच गया शून्य नही था, प्यार था.. वो अंधेरे की आहट थी मैं रूकता ना तो क्या करता? हाथों से अगुलियां फिसल गयी ना ठिठका होता गिर पड़ता, उन आंखो का सहज सलोनापन मेरा किञ्जित आधार था, जो शेष बच गया शून्य नहीं वो प्यार था.. जीवन शान्त कोलाहल का एक ज्वार था..शेष बच गया -अतुल पाण्डेय

हम तुम

किस शून्य में हम तुम आकर खड़े हुए हैं? तुम दिखते हो  चंद कदम दूर दिक् काल पर पसरे हुए कुछ कदम बढाये मैंने  तुम्हारी ओर हर कदम ही पहले का आधा होता जाता है ये कदम ही मेरी हिम्मत की दीवार की ईटे हैं सांस की हर एक दफा गुजरने पर उस दीवार की एक ना एक ईंट उखड़ जाती है टुकड़े मेरी नाकामियों के खड़े हैं आज भी किसी प्रत्याशा में  छू देते तो वे जीवंत हो उठते मुकम्मल होने के लिये...