घड़ियां

घडियां दौड़ रहीं 
सूरज भी दौड़ रहा 
शहर दौड़ रहे
गाँव भी रेग रहा
सब भाग रहे 
कहीं कोई नहीं पहुंचा कहीं भी,
नदियों सकुच के नलो में बह चली 
जंगल भागते पहुँच गया लान और छतों पर
जमीन पहुंच गई लाल कारपेट के नीचे 
पर्वत ने पैठ बनायी खड़ी कोट के हृदय खण्डो में
वो भी चली शरीर के भीतर पर नहीं पहुंची कहींP।

उसने भी थामी
वक्त की डोर दौड़ पड़ी
बिना शर्त  दौड़ पड़ी आसमान की ओर
घडियो की बात सुनी उसने
कहीं नहीं पहुंची वो भी 

उसने आटे में गूँथ दिया प्रेम
उसने टाँक दिया प्रेम को उखड़ते बखिये में  
उड़ेल दिया प्रेम बेसिन के जूठे बर्तनों में
भर दिया बच्चों की टिफिन में
चढ़ा दिया प्रेम को खुस्क होठो पर
अलसाये शाम के चाय की कड़वी घूंट में

रात के निस्तब्धता में 
अँगुलियों पर गिन गिन कर खर्च किया प्रेम
साँसों की धौंकनी पर रख कर
पोछ डाला प्रेम पात्र।

सुबह के अलार्म से उठी आँखे
उठाती हैं किचेन बाथरूम  टिफिन
बिस्तर चादर नमक तेल की छवियां 
चढ़ते दिन के साथ बढ़ती सांसो की बोझ
धकियाते पाँव लाकर पटक देते हैं 
दम घोटूं बिस्तरो पर छितराये सन्नाटे की चादर पर।

उसने घड़ियों से चुराये 
प्रेम के एक आध कतरों को
सहेजा हृदय की तलहटी की जमीन पर
भींच लिया मुट्ठियों में कस के
भर कर अँजुरी में
उड़ेल दिया आसमां के जानिब 
छुप के पूरे कायनात से
किया प्रेम का आचमन पहली बार
क्योंकि उसे फुर्सत नहीं प्रेम करने की...
✍️अतुल पाण्डेय

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