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Showing posts from 2020

ना

लड़कों को सिखाएं लड़की की "ना" का सम्मान करना  ----------------------------------------------------------------- मैंने पहली बार जब 'ना' कहा  तब मैं 8 बरस की थी  "अंकल नहीं .. नहीं अंकल ' एक बड़ी चॉकलेट मेरे मुंह में भर दी अंकल ने  मेरे 'ना' को चॉकलेट कुतर कुतर कर खा गई मैं लज्जा से सुबकती रही  बरसों अंकलों से सहमती रही फिर मैंने ना कहा रोज़ ट्यूशन तक पीछा करते उस ढीठ लड़के को  ' "ना ,मेरा हाथ न पकड़ो " ना ,ना... मैंने कहा न  " ना " मैं नहीं जानती थी कि "ना "एक लफ्ज़ नहीं ,एक तीर है जो सीधे जाकर गड़ता है मर्द के ईगो में कुछ पलों बाद मैं अपनी लूना सहित औंधी पड़ी थी मेरा " ना" भी मिट्टी में लिथड़ा दम तोड़ रहा था तीसरी बार मैंने "ना" कहा अपने उस प्रोफेसर को जिसने थीसिस के बदले चाहा मेरा आधा घण्टा मैंने बहुत ज़ोर से कहा था  " ना " "अच्छा..! मुझे ना कहती है " और फिर बताया कि जानते थे वो मैं क्या- क्या करती हूँ मैं अपने बॉयफ्रेंड के साथ  अपने निजी प्रेमिल लम्हों की अश्लील व्याख्या सुनते हुए मैं खड़
ये बात पिछले साल की है।मई का महीना,अंगारे बरसता आकाश ।इतनी तेज धूप कि पांच मिनट भी खड़े रह जाएं तो 'चौन्ह्आ' आ जाये।कुछ राजगीर और कुछ मजदूर लोग काम कर रहे हैं।हम शेषमणि दौड़ भाग कर सामान जुटा रहे।

डोपामिन

बीते कुछ वर्षों में स्मार्टफ़ोन एक नया एडिक्शन बनकर उभरा है। एक सर्वे के अनुसार हममें से अधिकांश लोग दिन में औसतन 4-5 घंटे फ़ोन में सोशल मीडिया समेत तमाम एप्स को स्क्रोल करते हुए बिताते हैं। छुट्टी के दिनों में तो हम अपने दैनिक कार्यों को छोड़कर पूरा दिन फ़ोन स्क्रोल करते या टीवी देखते बिता सकते हैं और फिर भी हम बोरियत महसूस नहीं करते। जबकि अन्य कार्य जैसे पढ़ाई करना, ऑफिस वर्क, घरेलू कार्य, व्यायाम इत्यादि हमें एक टास्क जैसे लगते हैं जिन्हें करने में हमें कोई मजा नहीं आता और जिन्हें करते हुए हमें बड़ा जोर पड़ता है। जबकि हम अच्छी तरह जानते हैं कि पड़े पड़े स्मार्टफ़ोन स्क्रोल करने, टीवी देखने या विडियो गेम खेलने के बजाये इन उत्पादक कार्यों को करना ज्यादा फायदेमंद है। आखिर क्यों एक एक्टिविटी हमें अपीलिंग और दूसरी हमें बोर लगती है?  इसका एक सरल जवाब ये हो सकता है कि फ़ोन स्क्रोल करने, टीवी देखने और विडियो गेम खेलने की अपेक्षा बाकी काम ज्यादा अटेंशन और दिमागी शारीरिक श्रम चाहते हैं। पर वहीँ हम देखते हैं कि कुछ लोग अपने दैनिक जीवन में उत्पादक कार्यों को करते हुए एक बेहतर जीवन बिताते हैं। आखिर इन लोगो

जयघोष करता आदमी

जयघोष हुआ! महाराज की जय हो! महाराज की जय हो! तूर्यनाद से सहमा भूख-प्यास से आकुल राजपथ पर घीसटता अंतिम व्यक्ति गिर पड़ा उसके हलक से चीख निकली महाराज ....? मंत्रीयों ने वाक्य पूरा किया ...की जय हो! राजा ने सुना  उसका अंतिम समय पर किया गया जयघोष। राजा ने सोचा अंतिम समय में भी  जयघोष करने वाला कितना उत्तम आदमी रहा होगा   राजा ने कहा इसे सम्मानित किया जाएगा राजा की आत्मा मर चुकी थी और उसकी देह। ✍अतुल पाण्डेय

आग

जब चूल्हे में नहीं है आग जब हाथों में नहीं है काम जब स्तनों में नही बह रहा दूध कवि !तुम प्रेम लिखना मैं क्रांति लिखूंगा।। जब युवाओं का, पानी हो गया खून जब हुक्मरान, आँखे ले रहे मूंद जब सब हैं अँधाधुन कवि!तुम स्तुति करना मैं आग लिखूँगा। जब भीड़ कर रही हो न्याय जब सत्ता की सीढ़ी से रिस रहा हो खून संगीन के साए में झुके देहरी कवि!तुम प्रशस्ति-वाचन करना मैं नारे लिखूंगा ।

riya

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मीडिया छी...छी सत्ता केवल रिया...रिया...रिया...रिया! ये स्तर हो गया इस देश का?ये हाल हो गया इस मीडिया का? तनिक भी लज्जा नहीं आती हुक्मरानों और इन मीडिया हाउस वालों को?एक सुनियोजित साजिश के तहत एक आरोपी महिला का चरित्र हनन किया जा रहा।ये है मीडिया ट्रायल क्या होता है? इससे घृणास्पद बात क्या हो सकती है कि किसी मासूम की हत्या को चुनाव जीतने का साधन बना लिया जाय?बिहार चुनाव में सुशान्त के पोस्टर लग रहे हैं।क्या देश में न्यायपालिका मर खप गयी या न्याय तंत्र किसी काम नही रहा।सुशान्त का केस की सीबीआई जाँच चल रही लेकिन बेलगाम बेशर्म मीडिया समानांतर न्याय तंत्र विकसित कर आरोपी को दोषी सिद्ध करने में लगा है।   ये भीड़ किसी दिन हमारे-आपके बहन बेटी का चरित्र हनन कर बैठेगी। The cold blooded media doesn't has any interest to talk about farmers,students issues. The sycophantic media is glorifying the government. It does not ask questions of power. It only puts the public in the dock. For this, the woman is an object. The ideology of a organization was imposed on the audience
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जो शेष बच गया शून्य नहीं था ,प्यार था.. जीवन शान्त कोलाहल का एक ज्वार था दुख की सीमा सन्तापों में सुख के अप्रतिम प्रलापो में शब्दो से विचलित भावो में सकुचे सिमटे से बाहो में सुख का झीना संसार था जो शेष बचा गया शून्य नहीं था, प्यार था.. पनघट से पनिहारीन रूठी पतझड़ में अमराई डूबी मोती ढूलक चले वनपथ पर कवि से वो कविताई छूटी सुख की दुख का अवगुन्ठन पहने जीवन का विस्तार था जो शेष बच गया शून्य  नहीं था,प्यार था.. भावों की जब मनका गूंथी शब्दों के आगे बेबस था सपनो की जब जब आहूति दी अपनो के आगे बेबस था तेरा रूक कर मुड़ जाना ही कमेरा असीम विस्तार थी जो शेष बच गया शून्य नही था, प्यार था.. वो अंधेरे की आहट थी मैं रूकता ना तो क्या करता? हाथों से अगुलियां फिसल गयी ना ठिठका होता गिर पड़ता, उन आंखो का सहज सलोनापन मेरा किञ्जित आधार था जो शेष बच गया शून्य नहीं वो प्यार था.. जीवन शान्त कोलाहल का एक ज्वार था.. शेष बच गया

स्वतंत्र मीडिया

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" I believe completely in any government, whatever it might be, having stout critics, having an opposition to face. Without criticism people and governments become complacent. The whole parliamentary system of government is based on such criticism. The free Press is also based on criticism. It would be a bad thing for us if the Press was not free to criticise, if people were not allowed to speak and criticise government fully and in the open. It would not be parliamentary government. It would not be proper democracy. I welcome criticism in Parliament. In fact, we welcome criticism from our own party members"___ Jawaharlal Nehru .

मीडिया

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भारत में 40 करोड़ सोशल मीडिया यूजर है।ये किसि ह् किसी पार्टी के समर्थक पेज से जुड़े है।इनको लगातार पोलेराइज़ करने का प्रयास किया जा रहा। Facebook- लगभग 346.2 मिलियन Twitter- लगभग 11.45 मिलियन Instagram- लगभग 80 मिलियन YouTube- लगभग 265 मिलियन इन सभी प्लेटफॉर्म्स पर फेक न्यूज़ और नफरत भरे कन्टेन्ट की भरमार है।तस्वीरो के साथ छेड़ छाड़ कर उनके संदर्भ बदल दिए गए है। भारत में 50 फीसदी से ज्यादा फेसबुक यूजर 25 साल से कम के हैं।ये सभी नए वोटर हैं।इन्हे इतिहास की गहरी समझ नही है।ये किसी एक पेज से जुड़ते हुए..विभिन्न राजनैतिक विचारधारों पर आधारित ट्रैप मेंएआ फंसते जाते है। इन्हे बार बार सुनियोजित तरीके से फेक न्यूज़ के माध्यम से,गलत बातों को तथ्य के रूप में बताया जाता है।इस नई पीढ़ी को कृत्रिम अस्मिता बोध से भर दिया जाता है। कम वय में ही इनकी कोरा मस्तिष्क घृणा ,विद्वेष,छोभ से भरता जाता है। कोई भी राजनैतिक दल दूध का धुला नही है।सबके अपने अपने मीडिया सेल हैं।लेकिन सत्ताधारी दल के मीडिया सेल के सम्मन दूर दूर कोई अन्य दल नहीं है। ओफ्फिशली इसके सदस्यों की संख्या 18 करोड़ हैं जिसमे से अनुमानतः 10

वो एक आम आदमी

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(1) वो सुबह होते ही उठा लेता है माथे पर सूरज और डूबो देता है पच्छिम में शाम होते होते फिर कल उठाने के लिए... ____________________ (2) वो खर्च करता है पसीने की एक-एक बूंद दो चार जोड़ी आखों के वास्ते एक घोंसला बनाने के लिए... ____________________ (3) वो उधार देता है सूरज को कोयला गर्मियों में ताकि बरसा सके रौशनी सबके लिए और खुद के लिए आग... _____________________ (4) निर्निमेष आँखों में दमित भावों के ग्लेशियर उसने थाम रखें हैं कई पीढ़ियों से  क़यामत के इंतिजार में... ____________________ ✍️अतुल पाण्डेय
ये अँधेरा बहुत डराता है  जबकि इसका होना ही शाश्वत है/ बचपन में कहे गये शब्द  अंधेरा काट लेगा का निहितार्थ जमीन पर उतरता है/  शनैः शनैः हाथ बढ़ाता है/ तमाम फैले हुए खेतों पहाड़ो जंगलों की ओर परछाईयां लम्बी होती जाती हैं,  रंग स्याह होता जाता है / कितना मुश्किल होता है टटोलना सब कुछ लेकिन टटोलना भी शाश्वत है/  सदैव टटोली जाती रही है  जेब से लेकर हृदय तक शब्द से लेकर भावों तक स्पर्श ही लक्ष्य है/ स्पर्श की अपनी आँखे हैं  इसकी अपनी भाषा है हाथ भी छूटते हैं और रिश्ते भी  कितना मुश्किल होता है  किसी पहलू का अनछुआ होना.... #यायावर

लॉक डाउन

(१)लाक डाउन बच्चे खुश हो गये, उन्हें स्कूल नहीं जाना पड़ेगा। बड़े खुश हो गये, उन्हें आफिस नहीं जाना पड़ेगा। स्त्रियाँ रसोई की ओर चल पड़ीं। (२) लाकडाउन बच्चों की जिद मैगी की थी, बड़ों को चाय के साथ पकौड़ा चाहिए था, स्त्रियों ने लाकडाउन के दिन गिने, स्त्रियों ने डाईटिंग शुरू कर दी। (3) लाक डाउन    घोषणा हुई, घर रहें,सुरक्षित रहें, बाहर निकलने पर खतरा है संक्रमण का, सब घरों की ओर दौड़े, स्त्रियाँ सहम गयीं, एक खतरा अंदर भी आ रहा था। (४)लाकडाउन पुरूषों के लिए नया था ये शब्द, बाहर जाने पर पाबंदी होगी, 'सामाजिक दूरी' बनानी होगी, किसी को 'छूना' खतरनाक होगा, पुरूषों ने स्त्रियों की ओर देखा और स्त्रियों ने इतिहास की ओर।

खुला आसमान

________________________ उसे खुला आसमान चाहिए था फैलाने के लिए पंख मुझे बंद मुट्ठी का कोना जिसमें छिप सकूं  दुनिया के झंझवातो से सुदूर घुप्प अंधकार में  उसे चाहिए थी माघ की गुनगुनी धूप जहाँ करवट ले सके अल्हड़पन  मुझे चाहिए था साँसो का कारोबार ताकि भर सकूं निश्चेष्ट लोगों की साँसे जो मसले हुए हैं खुद की लाशों तले उसे चाहिए था बेमौसम की बरसात  जिसमें भींगो दे अपने सभी अनकहे सूखे जज्बात बिखेर दे दुख मे पगी हुई खुशियाँ  मिट्टी की सोंधी सुगंध के वास्ते मुझे चाहिए था  सभी सितारों की रौशनी जिससे भर दूं दुनिया के पृष्ठ में छिपे अंधेरों में जहाँ जमा की जा रही मक्कारियां उसे चाहिए था परिजात के फूलों की माला जिसे पहनाती अपने प्रियवर को अनायास ही उसके वक्षस्थल पर रखकर माथा मुझे चाहिए था  उन करोड़ों भूखे पेटों की आंच जिसमें गलाता पैरों की बेड़ियां  और ढालता अनगिनत सुनहरे सपने  उसे पंसद था रात्रि के तीसरे पहर में  सप्तम सुर मे विलापता वैरागी मुझे पसंद थी खारे चेहरे लिए  वियोगी के प्रेम में पगी स्त्रियां  हम मिले अनायास व सहज ही क्षितिज और आसमान की तरह। _____________✍अतुल पाण्डेय ।
#नमक_और_स्त्री हर रेसिपी की विवरणिका में लिखी गयी तमाम सामानों की मात्राएँ अंत में लिखा गया नमक स्वादानुसार, स्त्री नमक थी हर ग्रन्थ के प्रस्तावना में स्वादानुसार मिलायी जाती रही।।

टूट कर बिखरना

#टूट_कर_बिखरना कल मौसम कुछ सर्द था  चाय की चुस्कियां रवानी पर थी बातें तो नहीं थी  कुछ भी नहीं था  तुम भी नहीं थे हाथ बिन छुए लौट के चले आये  लौटे प्रबल आवेग से तुम्हारी तरफ मुट्ठियों में भींच लेने को सर्प की भांति लिपट जाने को कुछ भी नहीं था  बातें भी नहीं थी   फिर भी तुम मुझमें करवट बदल रहे थे... फिर एक मगरूर हवा का झोंका आया  खिड़की पर रखा कप कांप उठा  हिल गया वजूद उसका आखिर टूट ही गया गिर कर  और भी बहुत कुछ टूट गया कप के साथ साथ वो भरम भी वो आशा भी  जो मुझे हम होने की तसल्ली देता था । किरचे बिखरे पड़े थे  आसमान की ओर मुँह बाये अब यादें करवट बदल रही थी।                     ----------------------------यायावर

उम्र

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Disclaimer:-एक बार मास्क पहनने के बाद कृपया नीचे ना खींचे। उम्र कुछ खिंची खिंची सी लगती है बनावटी हाव भाव चेहरे पर पुती वरिष्ठता की परिभाषा  ड्रेस कोड की खड़ी पंक्तियाँ मोटे लेंसों के परिधि पर खड़ा खड़ा  देखता हूँ मैं, सबकुछ पीछे जाते हुए  सिमटे हुए बचपन को कैशोर्य का विद्रोह को और समाज के नजरो से दबे वर्तमान को आईने लगाये चेहरों में अपना प्रतिबिम्ब  उदास व धुँधला नज़र आता है। मेरे वजूद के टुकड़ों की अठखेलिया मेरे किरदार को खण्डित करती हैं  आँखे चमक उठती हैं  जिम्मेदारियां सर पर सवार होती हैं और जिन्दगी चल पड़ती है।। ✍️अतुल पाण्डेय

अव्यक्त सम्बन्ध

कुछ अव्यक्त सबंध वीडियो और चित्रों में धुधले किये गये चेहरों के जैसे रहे जिसे दुनिया ने अमर्यादित कहा और कानून ने अपराध। सनद रहे! उन चेहरों को देखना कोई नहीं चाहता था पर देखना सबने चाहा।.... ✍अतुल पाण्डेय

प्रेम-अंकुर

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उम्र की ढलती दोपहर में उसके अंदर से फूटा प्रेम-अंकुर, जैसे गूलर के फल में पनप रहा हो गूलर का फूल। जैसै अषाढ़ की कच्ची बरसात में सहज ही फूट उठता है  मिट्टी-धूल के नीचे दबा पड़ा स्नेह-बीज। अंकुर जड़ें पहुँचीं हृदय की अतलतम कंदराओं में, जहाँ बिखरी पड़ी हैं वय:संधि काल की उमंगो के टुकड़े । जड़ों ने सोखा वर्जनाओं के पहाड़ तले दबे अश्रु-स्वेद के अधकचरे जीवाश्म को, अनायास ही साँसों में भरा उलझती लटों में लिपटी बसंती हवाओ को, पहन लिया नव-पल्लव  उम्र की गाँठों पर सहज ही, और उछाल दिया हथेलियों को आसमान के जानिब मुठ्ठी में भर लिया बचा-खुचा आसमान, उड़ते पंछीयों के झुण्ड में से थाम लिया मचलकर किसी भटकते पंछी का हाथ, लगाये अनगिनत गोते साथ-साथ सूरज की आड़ में...✍अतुल पाण्डेय

जिम्मेदारी

उम्र कुछ खिंची खिंची सी लगती है  बनावटी हाव भाव चेहरे पर पुती वरिष्ठता की परिभाषा  ड्रेस कोड की खड़ी पंक्तियाँ मोटे लेंसों के परिधि पर खड़ा खड़ा  देखता हूँ मैं  सबकुछ पीछे जाते हुए  सिमटे हुए बचपन को कैशोर्य का विद्रोह को और समाज के नजरो से दबे वर्तमान को आईने लगाये चेहरों में अपना प्रतिबिम्ब  उदास व धुँधला नज़र आता है। मेरे वजूद के टुकड़ों की अठखेलिया मेरे किरदार को खण्डित करती हैं  आँखे चमक उठती हैं  जिम्मेदारियां सर पर सवार होती हैं और जिन्दगी चल पड़ती है

जिम्मेदारी

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जिम्मेदारी जिम्मेदारियों के बोझ से सयाना हुआ डेढ़ बित्ते का कंधा आँखे चुराता है गाँव के पोखरी में इठलाती कुमुदनी से कंचे खेलते बच्चों के झुण्ड से सामने हाथ फैलाये बचपन की कल्पनातीत परछाई से, खड़ी कर रखी हैं तर्को की दीवारें अपने इर्द गिर्द  कहीं आक्रांत ना कर दे बचपना उसे.. -अतुल पाण्डेय

इतिहास रचती स्त्रियां

प्रत्येक काल-खण्डों में 'स्त्रियों ने रचा इतिहास' दुहराया गया अनेक बार परंतु इतिहास में ही रहे ये शब्द, इतिहास रचने वाली स्त्रियों के तरह... दरअसल! स्त्रियों ने इतिहास नहीं पढ़ा स्त्रियों ने सिर्फ गढ़ा है इतिहास... ✍️अतुल पाण्डेय

गुरूजी स्मृति

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#स्मृति_शेष गुरूजी संस्मरण-१ 20वीं सदी का उत्तरार्ध।युगान्तकारी 80-90 का दशक। उत्तर प्रदेश के अंतिम पूर्वी छोर पर स्थित मेरा गांव।पिछड़ा इतना कि अंग्रेज भी नहीँ पहुँच पाये।  ग्लोबलाईजेसन और नव-उदारवाद का दौर जब सभी क्षेत्र में निजी कम्पनियां पैर पसार रहीं थीं।छोटे-छोटे कस्बो तक प्राइवेट विद्यालय खुल रहे थे।सरकारी स्कूलों अस्ताचल की ओर जा रहे थे।बाज़ारवाद का दौर शुरू हुआ था।मुंशी जी व् पंडी जी कहलाने वाले अध्यापक "सर जी" से पदस्थापित हो रहे थे। इसी दौर में गांव के पूर्वी मुहाने पर एक आश्रम की स्थापना हुई। नाम रखा गया लोक चेतना आश्रम जो कालान्तर में क्षेत्र में गांधी आश्रम नाम से जाना जाने लगा।आश्रम की स्थापना की श्रीनारायण पाण्डेय जी ने जिनको प्यार से सभी क्षेत्रवासी गुरु जी कहते थे। मैं गाँधी जी को नहीँ देखा था पर गुरूजी को देखा था।एक छोटी सी कुटिया।।छोटा सा कद।बड़ी बड़ी मूंछें।आँख पर बड़ी सी ऐनक।खद्दर का कुरता,पायजामा और गमछा,चादर,तकिया विस्तर वगैरह सब ।वो भी स्वयं के काते हुए सूत का।पैरो में खड़ाऊ।ओजस्वी ललाट,प्रखर किन्तु सौम्य वक्तृता शैली।साफा की तरह सिर पर बांधी हुई

न्यायिक हत्या और बाहुबली तंत्र

सामान्यतः एनकाउंटर किया नही जाता अपितु दुर्भाग्य से हो जाता है......परन्तु यहाँ तो एनकाउंटर बा कायदे किया जा रहा। यह खबर त्वरित रूप से सन्तोषजनक है।परन्तु यह पैटर्न सही नहीं।यह हमारे सडे हुए न्याय तंत्र और और न्याय प्रक्रिया में हुई देरी का परिणाम है कि लोग खुश भी हो रहे।लोग त्वरित न्याय होते देखना चाह रहे। खाकी,अपराधी और खादी का गठजोड़ किसे नही पता?खादी, खाकी को प्रमोशन दिलावता और खाकी खादी को संरक्षण।इन दोनों को जोड़ने का काम करते अपराधी। आज पुलिस इतनी आक्रामक तब हुई है जब अपराधी का हाथ खाकी के गिरेबान तक आया है।पिछले 20 सालों तक सब मौन थे। और सबसे खतरनाक पैटर्न यह है कि विभिन्न जाति में जन्म लेने वाले दुर्दांत अपराधी अपने जाति के आन-बान-शान के प्रतीक बन जा रहे।इसके बाद अपराधी विशेषण केवल विधिक रजिस्टर में ही रह जाता।बाहर की दुनिया में ये " बाहुबली" नाम से संबोधित होते हैं। आपने कभी सुना है क्या! अपराधी राजा भैया,अपराधी अतीक अहमद,अपराधी ब्रजेश सिंह या फिर अपराधी हरि शंकर तिवारी? नही,क्योकि इनके बाहुबल से खादी वोट बटोरती है और इसी खादी के लिए मीडिया नरेटिव सेट करती है। पुलिस क

कब_रूकेगा_महापलायन_का_अंतहीन_सिलसिला

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#कब_रूकेगा_महापलायन_का_अंतहीन_सिलसिला? मेरे गाँव से दो किलोमीटर पर स्थित है राम-जानकी मार्ग  जो कि उत्तर प्रदेश और बिहार को जोड़ता है।उत्तरप्रदेश और बिहार को अलग करती है छोटी गणडक्।यहाँ से छः किमी दूर राम-जानकी मार्ग पर, गण्डक पर बने पुल के पश्चिम ओर है जनपद देवरिया तथा पूरब है बिहार का सिवान जनपद।पलायन की जो तस्वीरें सोशल मीडिया पर देख रहा था ,आज साक्षात देखा।ट्रको और लारीयों में भर-भर के मजदूर जा रहे हैं।ट्रकों में दो दो खण्ड बना कर    तथा ट्रक की छतों पर बैठ कर मजदूर जा रहे हैं।पलायन का अंत हीन सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा।सरकारी बसों में भी भर-भर के मजदूर आ रहे।बिहार से गाड़ियों के आने पर प्रतिबंध लगाया गया है।कोरोना ने इन मजदूरों को कहीं का नहीं छोड़ा।लेकिन आज भूख के आगे कोरोना का डर कुछ भी नहीं है।प्रथम प्रणयी भूख  ही है।  जेठ की उदास शाम,आसामान में छिट-फुट बादल।कोरोना संक्रमण के लाकडाउन में रेंगता जीवन।सहमा अलमस्त गाँव। कुछ लोगों को बिहार बार्डर पार कराने आया हूँ।सडक पर मजदूरों की गाड़ियों को छोड़ कर इक्का दुक्का गाडिया जा रही।।हम लोग कुल छ: लोग हैं।सबने मास्क पहन

भारत माता ग्राम वासिनी

#भारतमाता_ग्राम_वासिनी खेतों में फैला है श्यामल, धूल भरा मैला सा आँचल, गंगा यमुना में आँसू जल, मिट्टी कि प्रतिमा उदासिनी।।(सुमित्रानंदन पन्त)   भारत गाँवों का देश है।2011 की जनगणना के अनुसार 68.85% जनता अर्थात् लगभग 83 करोड़ लोग गाँवों में रहते हैं।वर्तमान समय में 640 जिले हैं तथा इन जिलों में 6.49 लाख के करीब गाँव हैं।ये गाँव ही पूरे भारत के लिए भोजन पैदा करते हैं।ये गाँव ही इन नगरों-महानगरों के लिये मजदूर और मानव-संसाधन उपलब्ध कराते हैं। स्वतंत्रता के बाद गाँवों की स्थिति में सुधार अवश्य हुआ परन्तु नगरों की तुलना में बहुत कम।सड़क-बिजली गाँवों तक भी पहुँचा।आज की स्थिति यह है कि(लाक-डाउन से पहले)प्रत्येक मिनट में 25-30 लोग गाँव से नगरों की ओर बेहतर जीविका के लिए पलायित हो रहे थे। नेहरू जी भारत को पश्चिमी देशों की तर्ज पर विकसित करना चाहते थे।परन्तु यह भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए कठिन व अप्रासंगिक था।स्वतंत्रता के बाद महात्मा गाँधी का ग्राम-स्वराज पुस्तकालय की अलमारियों के ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया।गाँधी का भारत स्वावलंबी गाँवो का भारत था,जहाँ प्रत्येक गाँव एक राष्ट्र की भूमिका
 हमारे हमारी मित्रता सूची में बहुत से लोग ऐसे हैं जो दिन रात फेक न्यूज़ अर्थात भ्रामक या अर्ध सत्य खबरें शेयर करते रहते हैं इन लोगों को अभी भी भरोसा है की टीवी पर न्यूज़ चैनल देख कर सूचनाएं प्राप्त  कर सकते हैं समय-समय पर ऐसे लोगों को समझाने का प्रयास करता हूं तथा फेसबुक पर द्वारा दिए गए अनफॉलो अमित्र तथा 30 दिन के लिए इनके पोस्टों को अदृश्य करने के विकल्प का प्रयोग करता हूं कोना के संबंध में फेसबुक टि्वटर व्हाट्सएप तथा खासकर यूट्यूब पर अनेक फर्जी तथा भ्रामक सूचनाएं फैली हुई है इसको रोना काल में तमाम लोगों की नौकरियां चली गई तमाम लोगों की बहुत से लोग अपनी जान से हाथ धो दिए बहुत से लोग भुखमरी की कगार पर है सरकारों को भयंकर आर्थिक घाटा हुआ है परंतु कुछ लोग ऐसे हैं जिन को फायदा ही फायदा हुआ है जैसे यूट्यूब पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बेवकूफ पत्रकार तथा एंकर पुलिस स्टाफ। यह सभी लोग अप पोस्ट जानकारियां फैलाकर सनसनी फैलाकर भ्रामक हेडिंग या शीर्षक बनाकर लोगों का ध्यान आकर्षित करते हैं जिससे कि इनकी टीआरपी बढ़ सके इनकी भी वर्ष बढ़ सकें इनके लाइक और कमेंट पढ़ सकें मैंने तो इन न्यूज़ चैनल को देखना ही

स्पर्श के हस्ताक्षर

उफ़!कितनी उदास शाम है।अल्हड़ पुरवाई भी बहका नहीं रही है।कोयल की बोली की मिठास भी हृदयान्तर के कड़वाहट को धो नहीं पा रही।रफी के संजीदा गाने में रूहानियत ही ना रही।गुलाम अली अब बेसुरा गाता है,वो लरजिस ही ना रही... न ही किशोर के चुलबुले नटखट गानों के झोंके। कितना कुछ बदल सा गया है।तुम्हारे बगैर जीवन नीरस हो चला है।दूरियों का भौतिक अस्तित्व अब डराता है।पूरी दुनिया जम सी गई है।सुबह होता है और बमुश्किल रात होती है।शाम हुए जमाना हो गया।मैंने कभी तुम्हे छुआ नहीं है पर अंगुलियों में तुम्हारे देह के स्पर्श क्यों याद आ रहे?मैं नहीं जानता.तुम्हारा न होना उतना ही झूठा है जितना कि तुम्हारा होना।तुम मुझसे कभी मिली नहीं परन्तु मेरे होठों पर तुम्हारे अहर्निश चुम्बनों के निशान तुम्हारे होने की दुहाई दे रहे।बालों में तुम्हारी हथेलियों के नर्म निशान उलझे हुए हैं। तुम्हारी पथरायी आँखों में अब भी मैं एक इंतिजार की राह दखता हूँ जिस पर मेरी स्पर्श के स्पष्ट हस्ताक्षर हैं। क्या कहूँ ?मेरे कहने और सोचने में कोई साम्य नहीं है।तुम्हे याद है!मैंने कहा था कि शब्द कभी भाव के पर्याय नहीं हो सकते हैं।इनकी क्षमता से बा

ब्रह्माण्ड और हमारा अस्तित्व

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आज मैं दृश्यमान ब्रह्मांड के सुपरक्लस्टर के, वीगो सुपर क्लस्टर के, लोकल आकाशगंगा समूह में स्थित मंदाकिनी आकाशगंगा की ओरियन भुजा में स्थित सौर मंडल के, पृथ्वी नामक ग्रह पर स्थित एशिया महाद्वीप के, भारतीय उपमहाद्वीप के मध्य में भारतवर्ष नामक देश में उपस्थित, उत्तर प्रदेश नामक राज्य के अंत में एक देवरिया जनपद के पुच्छ पर स्थित सलेमपुर तहसील के केंद्र में अवस्थित श्री रैनाथ ब्रम्हदेव स्नातकोत्तर महाविद्यालय सुगहीं सलेमपुर की शिक्षा संकाय में कुर्सी पर बैठा हुआ,यह लिख लिख रहा हूं।  हमारी आकाशगंगा का 100000 प्रकाश वर्ष वर्ष व्यास  तथा 3000 प्रकाश वर्ष मोटी सर्पिलाकार संरचना है। हमारा सूर्य इसके केंद्र से 26000 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है तथा 250 किलोमीटर प्रति सेकेंड की दर से आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा कर रहा है ।जबकि एक प्रकाश वर्ष में 95.5 खरब किलोमीटर के बराबर होता है। कितना विशालकाय है हमारा ब्रह्माण्ड!इसी अकाशगंगा की ओरियन भुजा में स्थित सौर मण्डल के एक ग्रह पृथ्वी पर जीवन उत्पन्न हुआ था।वह जीवन आज से करीब 400 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था। विभिन्न भौतिक व जैव रासायनिक क्रियाओ

शहरीकरण

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       शहर उतरता है टी वी फिल्मों के रास्ते गाँव में घुलता जाता शनैः शनैः रक्त में  किसी हार्मोन की तरह दिखाता कंक्रीट की वादियों का सब्जबाग जिनमें है कुछ उड़ती हुई सेल्फियाँ  कुछ एक सन्नाटे को शोर है बहुमंजिली इमारतों में जड़े सितारों की लड़िया,  जिनके पाँव को वक़्त नहीं  कि नाप ले दहलीज अपने अस्तित्व की। चिड़ियों की चहचहाहाट को चीरता  दैत्यनुमा गाड़ियों का कर्कश शोर गमलों में सिमटते बरगद की छाँव  सड़कों की रफ्तार से पीछे छूटते गाँव अब हर घरों में शहर बस रहे हैं .. सम्बन्धों के नये आयाम  शहरी परम्पराओं की आरोपित आवृत्ति  'सब कुछ बिकता है' की निर्लज्ज प्रवृत्ति  समय की निकटता सम्बन्धों की दूरी  हरा मुखौटा पहने शहर खुलकर विहँस रहे हैं .. अब शहर गाँवों में उतर रहे हैं .. ✍ अतुल पाण्डेय

अफवाह

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उद्घोषणा हुई, हमने कहा बाहर ना निकलें घरों में रहें,सुरक्षित रहें अफवाहों पर ध्यान ना दें वे चिल्लाये- हम खाने बिना मर रहे हैं, हमने कहा कि ये अफवाह है ..

मरती संवेदना

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                 कविता यह मरती हुई संवेदनाओं का देश है जहाँ एक पैर दूसरे पैर को नहीं पहचानता जहाँ शहर हर रोज मेरा गाँव खाता जा रहा जहाँ महलों से आती रोशनी झोपड़ीयाँ जला रहीं जहाँ एक हाथ में फोन और दुसरे में तलवार है यह मरती हुई संवेदनाओं का देश है। यह डूबती हुई संभावनाओं का देश है जहाँ किसान ज़हर खाता है जहाँ छात्र लाठी खाते हैं जहाँ सेना पत्थर खाती है जहाँ भीड़ आदमी खाती है जहाँ सरकार घूस खाती है यह डूबती हुई संभावनाओं का देश है। यह आहत हुई भावनाओं का देश है जहाँ मिनारें आग उगलती हैं जहाँ घण्टों से चिंगारी निकलती है जहाँ भाषा दंगे कराती है किताबें घर जलाती हैं जहाँ झण्डों पर ख़ून के छींटे हैं। यह कुंठित-दमित वासनाओं का देश है जहाँ कलियाँ मसल दी जाती हैं चेहरे झुलसा दिये जाते हैं शरीर में पत्थर डाल दिये जाते हैं आँखो से एक्स रे लिए जाते हैं रिश्तों की आड़ में बच्चे नोंच लिए जाते हैं यह मरती हुई संवेदनाओं का देश है।

स्पर्श रेखा

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 मेरे जीवन-वृत्त पर खिंची अनेक स्पर्श-रेखायें द्योतक हैं मेरी वक्रता की जहाँ मैं शीर्ष पर चढ़ने से पूर्व उतर गया हूँ तुम्हारे ऊर्ध्वाधर अस्तित्व और मेरी वक्रता के स्पर्श-बिन्दु से खिंची प्रत्येक रेखा मेरे हृदय-केन्द्र से होकर गुज़री है।