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वो एक आम आदमी

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(1) वो सुबह होते ही उठा लेता है माथे पर सूरज और डूबो देता है पच्छिम में शाम होते होते फिर कल उठाने के लिए... ____________________ (2) वो खर्च करता है पसीने की एक-एक बूंद दो चार जोड़ी आखों के वास्ते एक घोंसला बनाने के लिए... ____________________ (3) वो उधार देता है सूरज को कोयला गर्मियों में ताकि बरसा सके रौशनी सबके लिए और खुद के लिए आग... _____________________ (4) निर्निमेष आँखों में दमित भावों के ग्लेशियर उसने थाम रखें हैं कई पीढ़ियों से  क़यामत के इंतिजार में... ____________________ ✍️अतुल पाण्डेय
ये अँधेरा बहुत डराता है  जबकि इसका होना ही शाश्वत है/ बचपन में कहे गये शब्द  अंधेरा काट लेगा का निहितार्थ जमीन पर उतरता है/  शनैः शनैः हाथ बढ़ाता है/ तमाम फैले हुए खेतों पहाड़ो जंगलों की ओर परछाईयां लम्बी होती जाती हैं,  रंग स्याह होता जाता है / कितना मुश्किल होता है टटोलना सब कुछ लेकिन टटोलना भी शाश्वत है/  सदैव टटोली जाती रही है  जेब से लेकर हृदय तक शब्द से लेकर भावों तक स्पर्श ही लक्ष्य है/ स्पर्श की अपनी आँखे हैं  इसकी अपनी भाषा है हाथ भी छूटते हैं और रिश्ते भी  कितना मुश्किल होता है  किसी पहलू का अनछुआ होना.... #यायावर

लॉक डाउन

(१)लाक डाउन बच्चे खुश हो गये, उन्हें स्कूल नहीं जाना पड़ेगा। बड़े खुश हो गये, उन्हें आफिस नहीं जाना पड़ेगा। स्त्रियाँ रसोई की ओर चल पड़ीं। (२) लाकडाउन बच्चों की जिद मैगी की थी, बड़ों को चाय के साथ पकौड़ा चाहिए था, स्त्रियों ने लाकडाउन के दिन गिने, स्त्रियों ने डाईटिंग शुरू कर दी। (3) लाक डाउन    घोषणा हुई, घर रहें,सुरक्षित रहें, बाहर निकलने पर खतरा है संक्रमण का, सब घरों की ओर दौड़े, स्त्रियाँ सहम गयीं, एक खतरा अंदर भी आ रहा था। (४)लाकडाउन पुरूषों के लिए नया था ये शब्द, बाहर जाने पर पाबंदी होगी, 'सामाजिक दूरी' बनानी होगी, किसी को 'छूना' खतरनाक होगा, पुरूषों ने स्त्रियों की ओर देखा और स्त्रियों ने इतिहास की ओर।

खुला आसमान

________________________ उसे खुला आसमान चाहिए था फैलाने के लिए पंख मुझे बंद मुट्ठी का कोना जिसमें छिप सकूं  दुनिया के झंझवातो से सुदूर घुप्प अंधकार में  उसे चाहिए थी माघ की गुनगुनी धूप जहाँ करवट ले सके अल्हड़पन  मुझे चाहिए था साँसो का कारोबार ताकि भर सकूं निश्चेष्ट लोगों की साँसे जो मसले हुए हैं खुद की लाशों तले उसे चाहिए था बेमौसम की बरसात  जिसमें भींगो दे अपने सभी अनकहे सूखे जज्बात बिखेर दे दुख मे पगी हुई खुशियाँ  मिट्टी की सोंधी सुगंध के वास्ते मुझे चाहिए था  सभी सितारों की रौशनी जिससे भर दूं दुनिया के पृष्ठ में छिपे अंधेरों में जहाँ जमा की जा रही मक्कारियां उसे चाहिए था परिजात के फूलों की माला जिसे पहनाती अपने प्रियवर को अनायास ही उसके वक्षस्थल पर रखकर माथा मुझे चाहिए था  उन करोड़ों भूखे पेटों की आंच जिसमें गलाता पैरों की बेड़ियां  और ढालता अनगिनत सुनहरे सपने  उसे पंसद था रात्रि के तीसरे पहर में  सप्तम सुर मे विलापता वैरागी मुझे पसंद थी खारे चेहरे लिए  वियोगी के प्रेम में पगी स्त्रियां  हम मिले अनायास व सहज ही क्षितिज और आसमान की तरह। _____________✍अतुल पाण्डेय ।