"चंद कलियां निशात की चुनकर मुद्दतों महवे यास रहता हूं तेरा मिलना खुशी की बात सही तुझ से मिलकर उदास रहता हूं...!"(-साहिर) आज साहिर का जन्मदिन भी है ।बिलकुल यही मनोदशाहै मेरी,अब तुमसे विदा लेना तुमसे मिलने से बेहतर लगता है।NFK की एक लाइन है कि... आ फिर से मुझे छोड़ जाने के लिए आ। तुमसे मिल कर एक टीस सी उठती है, वो टीस फिर से तुम्हे विदा कहने का साहस दे जाती है। सोचता हूं बारहा सोचता हूं कि कभी तुम्हें मेरा देखना दिखाई दे।
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Showing posts from 2022
माट्टो की साइकिल
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जर्जर हो चुकने के बाद भी वह पुरानी साइकिल मट्टो पाल की जीवनरेखा है. कभी उसके पहिये का रिम टेढ़ा हो जाता है, कभी मडगार्ड उखड़ जाता है तो कभी उसकी धुरी का संतुलन बिगड़ने लगता है. मट्टो बेलदार है, दिहाड़ी पर मजूरी करता है. अक्सर बीमार पड़ जाने वाली बीवी से उसकी दो बेटियां हैं - नीरज और लिम्का. नीरज शादी के लायक हो गई है जिसके दहेज के लिए मट्टो से मोटरसाइकिल की मांग है. कायदे से किशोरवय लिम्का को स्कूल जाना चाहिए लेकिन ज़माने का चलन देखते हुए मट्टो ने उसे घर पर रखने का फ़ैसला किया हुआ है. सूचना और चकाचौंध से अटी जो इक्कीसवीं शताब्दी हमें नज़र आती है, जंग लगी मट्टो की साइकिल उसकी छद्म आधुनिकता पर लगे असंख्य पैबन्दों को उघाड़ कर रख देती है. एक घटनाक्रम है. मट्टो सड़क किनारे टोकरी लगाए लौकी-तुरई बेच रहे अपने ही जैसे एक आदमी से मोलभाव कर रहा है. दूसरे किनारे पर झाड़ियों से टिका कर रखी गई साइकिल को वहां से गुज़र रहा एक ट्रैक्टर कुचल जाता है. इस त्रासदी के बाद दर्द और हताशा में किया गया मट्टो का दीर्घ आर्तनाद किसी क्लासिकल ग्रीक त्रासदी की याद दिलाता है. अगले दृश्य में चार लोगों का परिवार साइकि
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यह अक्टूबर है,नहीं यह हरसिंगार का महीना है।सुबह से झमाझम बारिश हो रही है।दशहरा भी बारिश में धुल गया है। मैं सुबह से good morning के जवाब की प्रतीक्षा में हूं। पल पल पर इनबॉक्स चेक कर रहा हूं।उसका जवाब नहीं आया अब तक,हो सकता है समय न मिला हो,हो सकता है मूड ऑफ हो या ये भी हो सकता है कि कोई आस पास हो। हर एक अनुमान दूसरे अनुमान को काट दे रहा। एक गालिब का शेर याद आ रहा है कि "मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने मरने में,उसी काफिर में मरते हैं कि जिस काफिर पर दम निकले"। घायल मन सहानुभूति खोजता है।लेकिन धीरे धीरे सहानुभूति का आदि हो जाता है तो अपने को घायल करने से भी परहेज नहीं करता।
भगत सिंह की फांसी और गांधी की भूमिका
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क्या गांधी ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को बचाने की जगह लार्ड इरविन से उनको फाँसी देनी ही है तो जल्दी देने की मांग की? सवाल नया नहीं है, गांधी विरोधियों का बहुत पुराना और प्रिय हथियार रहा है. जवाब भी नया नहीं है- गांधी ने पूरी कोशिश की, अंत तक. सफल नहीं हुए! पर फिर से कुछ सावरकर भक्तों ने यही सवाल हवा में उछाल दिया है- वो भी आजीवन कांग्रेसी रहे पट्टाभि सीतारमैया की किताब- "कांग्रेस का इतिहास-(1885-1947) खंड-1" निकाल। दावा: पट्टाभि के मुताबिक उस रोज गांधी ने वायसराय लार्ड इरविन से भगत सिंह की फांसी को लेकर ये कहा था-"भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी देनी है तो कराची के अधिवेशन के बाद देने के बजाए, पहले ही दे दी जाए। ताकि देश को पता चल जाए कि वस्तुत: उसकी क्या स्थिति है और लोगों के दिलों में झूठी आशाएं नही बंधेंगी।" सच 1: सवाल तो यह भी होना चाहिए कि भगत सिंह की सजा रोकने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (तब 6 साल हो गए थे स्थापना के) और सावरकर- उन्हें माफ़ी मांग अंडमान से 1921 में रिहा होने के बाद 10 साल हो चले थे. गांधी हिंसा के विरोधी थे, इस झूठे दावे
डायरी
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तुम्हें देखना एक पवित्र कार्य है।तुम्हारे निष्कलंक चेहरे को मैं घंटो देखा करता हूं। सहेजे गए तुम्हारे चित्र को देखना मेरी पुरानी शय है।देखते देखते लगता है पिक्सलों से होते हुए अणुओं परमाणुओं तक पहुंच गया होऊं जहां मेरा अस्तित्व तुम्हारी आत्मीयता का आलिंगन करता है। तुम्हारी प्रतीक्षा में दिन यूं बीतते है जैसे पलकों का झपकना।प्रतिक्षाएं बिखरी पड़ी हैं संसार में,किस प्रतीक्षा की आयु कितनी है कौन जाने, पर हां कुछ की आयु अनंत होती है। जैसे सूरज का समुद्र में डूब जाना., समुद्र की घोर प्रतीक्षा का फल है। समुद्र की अथाह जलराशि की सीमा प्रतीक्षा करने तक ही है।
शेखर एक जीवनी
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किशोरवय का मन यदि अबोध और अभिमानी हो तो किसी तरुणी की मूर्ति बनाकर उसकी उपासना करने लगता है फिर वह बहिन हो या सखी (किन्तु यह तो अब विगत सदी की बात हो गई क्योंकि इस सदी ने अबोध-तत्व की जैसे हत्या की है उसने तो आत्मा का मानचित्र ही बदल दिया है!) परन्तु वैसा क्यों होता था? क्योंकि देह में दुर्निवार चाहना की गूंज चली आई है, उसके वलय जगने लगे हैं, किन्तु बुद्धि अभी उसकी व्याख्या नहीं कर सकती है। अभी वह इतनी वयस्क नहीं हुई। वयस्क शब्द में ही वय है! हृदय में एक हाहाकार उठता है जो उसको मथ डालता है। किशोरवय का मन यदि अबोध होने के साथ ही अभिमानी भी हो तो उस ज्वार की व्याख्या एक ऐसी आसक्ति की तरह करता है जो सांसारिक नहीं अपार्थिव है। किसी तरुणी को वह अपने हृदय की सम्राज्ञी बनाकर पूजने लगता है और अगर उसको भनक भी लग जाए कि उसका वो व्यक्ति-विग्रह निरा नश्वर है, तो आत्महंता अवसाद से वह घिर जायेगा। अपनी उपास्य को वह कभी शशि कहेगा, कभी शारदा, कभी सरस्वती, किन्तु वह उसकी प्रतीक्षा करेगा, उसकी प्रतिमा को परिष्कृत करेगा, कभी पुष्पों से उसको सजाने का उद्यम, किन्तु अपनी उस प्राणमूर्ति के बिना जी नहीं सकेगा।
दृष्टि दोष1
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जेम्स वेब अंतरिक्ष दूरबीन किस तरह से ब्रह्मांड के इतिहास को देखने में सक्षम है ? इस विषय पर विज्ञान विश्व पर पोस्ट की एक शृंखला आएगी, आरंभिक अनुमान से इस विषय पर 10-12 पोस्ट होंगी। अंत से सारी पोस्ट को https://vigyanvishwa.in/ पर एक लेख के रूप मे संकलित किया जाएगा। प्रस्तुत है इस शृंखला की पहली कड़ी: भाग 1 : मानव आंखें कैसे देखती है ? किसी भी वस्तु को देखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है, प्रकाश! बिना प्रकाश के दृष्टि संभव नहीं है। मानव तथा अन्य प्राणियों की देखने की क्षमता प्रकाश , आँखों और मस्तिष्क के पारस्परिक क्रिया से बनती है। हमारी दृष्टि किसी वस्तु को उससे निकलने वाले प्रकाश से देखती है जो अंतरिक्ष या अवकाश को पार कर हमारी आँखों तक पहुंचता है, हमारी आंखें उस प्रकाश को ग्रहण कर मस्तिष्क तक संकेत भेजती है और हमारा मस्तिष्क उन संकेतों को समझ कर उस वस्तु के आकार , प्रकार, स्थान और गति संबंधित सूचनाओं का निर्माण करता है। किसी वस्तु से निकलने वाला प्रकाश उसका स्वयं का हो सकता है जैसे सूर्य, तारे, चंद्रमा, जलती मोमबत्ती या बल्ब! लेकिन अधिकतर मामलों में यह प्रकाश किसी प्रकाश स्रोत द्
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कल एक परीक्षा देने गया था। इन दिनों पूर्वांचल में भीषण गर्मी पड़ रही है,गर्मी से हालत पस्त थी।परीक्षा कक्ष एकदम कोने में था।एक तो छोटे से हाल में पचास कैंडिडेट्स ऊपर से बहुत गंदी वाली उमस।बिजली की कोई व्यवथा नहीं थी,पंखा तो खैर नहीं ही चल रहा था और साथ साथ रौशनी की भी कोई व्यवस्था नहीं।परीक्षा सूचिता के नाम पर खिड़कियों तक को स्थायी रूप से बंद कर दिए थे।दस मिनट में ही सब पसीने से तर बतर हो गए। हमने कक्ष निरीक्षक से बिजली की व्यवस्था करने को कहा पर उन्होंने ने अनसुना कर दिया।हमारे दो बेंच आगे एक प्रेगनेंट महिला बैठी थीं।एक तो उनसे बैठा नहीं जा रहा था और दूजे उनको लिखना भी था। भीषण गर्मी थी,पसीना इतना हो रहा था कि उनसे क्या पूरे क्लास से लिखा नहीं जा रहा था। कापी भीग जा रही थी। मैं स्वयं विजुअली इंपायर्ड हूं,काम रौशनी में देखने में दिक्कत होती है,मुझे देखने और लिखने में समस्या हो रही थी। मैं कई बार कक्ष निरीक्षक महोदय से कहा कि कम से कम प्रकाश का तो प्रबंध कर दें।बाद में चीखा और उलझ भी गया।लेकिन गार्ड साहब टस से मस न हुए। आश्चर्य जनक बात ये थी कि 35 के करीब महिलाएं या लड़कियां थी कक्षा म
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(१) स्मृतियां प्रायः सुखद होती हैं लेकिन कभी कभी उनकी पुनः घटित न होने की कसक हमें क्षोभ और दुःख से भर देती हैं।हमें पता है कि स्मृतियां मात्र किसी रिकॉर्डेड विडियोज या चित्र की मानिंद हैं जिसका वर्तमान में कोई अस्तित्व नहीं परंतु वे बार बार अपनेवको दुहराने का विनय करती हैं। हर बीता हुआ पल किसी तस्वीर की भांति अतीत है।उसका न होना ही उसके अस्तित्व का प्रमाण है। (२) कैलेंडर में कितने दिन गुजरते गए परंतु हमारी शाम तक नहीं होती। तुम्हारी गुड मॉर्निंग नए दिन का आहट दे जाती है और अगली गुड मॉर्निंग इसके खत्म होने की सूचना भी । व्हाट्सप्प पर तुम्हारा online रहना ऐसे लगता है जैसे तुम्हारी बड़ी बड़ी आंखें निहार रहीं हों मुझे , सांसे तेज हो जाती हैं और मैं आँखें इधर उधर कर लेता हूं कि नजरें मिल न जाएं कहीं।ऑफ लाइन होना लगता है तुम कहीं दूर चले गए। ये ऑनलाइन दिखना मेरे लिए खिड़की की तरह है,जिसमे से घंटों तुम्हारी बाट देखता रहता हूं। पुनः एक बार कभी दिखने पर उलाहना भरी दृष्टि फेंकता हूं, लगता है कि प्रतीक्षा अपूर्ण रह गई,क्योंकि दिखते ही हृदय में कंपन होता कि तुम्हारा अभी ऑफलाइन होना एक नई प्रतीक
माँ का ऋणी हो तुम माँ ने तुम्हें जीवन दिया पिता का आभार व्यक्त करो पिता ने तुम्हें छाँव दी परन्तु, राजा को धन्यवाद देना पड़ेगा बस इसलिये कि वह तुम्हे जीने दे रहा... -अतुल पाण्डेय
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■ स्मरण ------------ जन्मदिन पर विशेष - लोहिया ने रखी थी, देश मे विपक्ष की नींव. आज ( 23 मार्च ) एक कुजात गांधीवादी का जन्मदिन है, हालांकि उस कुजात गांधीवादी ने अपना जन्मदिन कभी नहीं मनाया। उसी के जन्मदिन के दिन ही शहीद ए आज़म भगत सिंह को साल 1931 में फांसी पर लटका दिया गया था। पर जन्मदिन पर कोई जश्न न मनाए, पर जन्मदिन तो आता ही है और आकर गुज़र भी जाता है। वह कुजात गांधीवादी थे, देश के समाजवादी आंदोलन के एक प्रमुख स्तम्भ डॉ राममनोहर लोहिया। डॉ लोहिया का जन्म 1910 ई में हुआ था और वे युवा होते ही स्वाधीनता संग्राम में शामिल हो गए थे। वे खुद को गांधी के सविनय अवज्ञा यानी सिविल नाफरमानी से प्रभावित मानते थे और जब गांधीवाद की बात चलती थी, तो खुद को कुजात गांधीवादी कहते थे। यह बात वे परिहास में नहीं कहा करते थे, बल्कि उन्होंने इस वर्ग विभाजन को, सरकारी, मठी और कुजात गांधीवादी, शीर्षक से एक विचारोत्तेजक लेख भी लिखा है। इन श्रेणियों का विभाजन करते हुए वे कहते हैं कि सरकारी गांधीवादी वे हैं जो कांग्रेस में हैं और सत्ता में हैं, जैसे जवाहरलाल नेहरू। मठी गांधीवादी वे हैं, जो गांधी जी के नाम पर प